भूल तो इंसान से ही होती है। यह बात सही भी है लेकिन अपनी छोटी छोटी गलतियों को भी जब हम नजरअंदाज करने की आदत बना लेते हैं तो हमें पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। तब मन ही मन हमें ग्लानी भी होती है कि काश समय रहते ध्यान दे देते तो बार बार सॉरी कहने की स्थिति नहीं बनती। हम संता-बंता के जोक्स तो उत्साह से फारवर्ड करते हैं लेकिन अपनी भूल सुधारने का ना तो हमें वक्त मिलता है और ना हम अपनी भूल पर हंसना जानते हैं। अपने पर हंसना भी सीख लें तो खुद में सुधार की प्रक्रिया स्वत: शुरू हो सकती है।
फोन पर किसी मातहत साथी को वे उसकी गलतियों के लिए बिना रुके फटकार वाले लहजे में समझा रहे थे। चूंकि दूसरी तरफ से सफाई देने जैसा स्वर भी सुनाई नहीं आ रहा था इससे मुझे भी लगने लगा कि वाकई गलती हुई है इसीलिए कोई सफाई नहीं दी जा रही है।
काफी देर बाद जब वे वरिष्ठ अधिकारी फोन फटकार से फ्री हुए तो मैंने सहज ही कारण पूछ लिया। जो बात सामने आई वह यह कि उस मातहत ने जो रिपोर्ट बनाकर भेजी थी वह बहुत ही कामचलाऊ तरीके से तो बनाई, उस पर भी लापरवाही का आलम यह कि उन अधिकारी का पद नाम भी गलत लिख दिया था।
मैंने मजाक में कहा नाराजगी का असली कारण तो फिर यही हुआ कि आपका पदनाम गलत लिख दिया गया। उनका जवाब था रिपोर्ट पद या नाम के बिना भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो स्टेट्स है वह तो यथावत रहना ही है। मूल बात तो यह है कि रिपोर्ट में जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि जब इसे ही गंभीरता से नहीं पढ़ा गया तो अपने अन्य साथियों के काम को भी गंभीरता से नहीं देखते होंगे। सहकमयों को उनकी गलतियां भी ना बताई जाए तो फिर ना तो उनके काम में सुधार होगा और न ही उनमें लीडरशिप के गुण विकसित होंगे। उल्टे स्टाफ के बाकी साथियों की भी काम में लापरवाही की आदत पड़ जाएगी। मुझे भेड़ों का झुंड नहीं, रेस में नंबर वन पर रहने वाले घोड़े तैयार करना है।
अकसर हम सब से छोटी-छोटी लापरवाही होती रहती है, हम नजर अंदाज करते रहते हैं। बात तब बिगड़ जाती है कि वही छोटी सी गलती हमारे लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन जाती है। हम सब के साथ यह होता ही है, फोन पर बात करते करते अचानक नंबर नोट करने के हालात बनते हैं तो फोन के पास हमेशा रखा रहने वाला पेन बस उसी वक्त ही नहीं मिलता। पेन ना मिल पाने की झल्लाहट हम बच्चों पर उतार रहे हैं यह फोन पर भी साफ सुनाई देता है। ऐसा भी होता है कि हम अपने किसी प्रिय का नंबर तो तत्काल नोट कर लेते हैं लेकिन साथ में नाम लिखने की सजगता नहीं दिखाते। कुछ दिनों बाद जब फिर उस व्यक्ति से बात करने की स्थिति बनती है तो हमें डायरी में लिखे नंबरों में समझ ही नहीं आता कि जिनसे बात करना है उनका नंबर कौन सा है। दिमाग पर खूब जोर डालते हैं, यह तो याद आता है कि हमने नोट तो किया था। बस वही नंबर इसलिए नहीं मिलता क्योंकि हमने तब साथ में नाम लिखा ही नहीं था। गृहणियां इस मामले में हमसे अधिक चतुर, समझदार होती हैं। दूध वाले का हिसाब हो, करियाने वाले का बिल चुकाया हो, बच्चों को पॉकेटमनी दी हो, लोन की किश्त चुकाई हो या टीवी, सोफा कब खरीदा ये सारा लेन-देन किसी डायरी या कैलेंडर के पीछे लिखा मिल जाएगा।
मुझे कुछ दिनों पूर्व दूर के एक परिचित का एसएमएस आया कि आप का एडे्रस क्या है, शादी का कार्ड भेजना है। हम सब जानते हैं कि विजिटिंग कार्ड संभाल कर नहीं रखे जाते, जवाब में मैंने भी एसएमएस कर दिया कि आपको जो कार्ड दिया था उसमें पता भी लिखा है। फिर एसएमएस आया कि वह कार्ड इतना संभाल कर रखा है कि मिल ही नहीं रहा है। खैर मैंने पता एसएमएस कर दिया।
घूम फिर कर बात वहीं आ गई कि हम लापरवाही तो बहुत छोटी-छोटी करते हैं लेकिन सामना करना पड़ता है पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का। हम सब वज्र मूर्ख ही हैं ऐसा भी नहीं है क्योंकि गाड़ी में पेट्रोल है भी या नहीं पता करने के लिए माचिस की तीली जलाकर नहीं देखते। गीले हाथों से बिजली का स्विच ऑन करने की गलती भी नहीं करते और न ही मच्छर मारने की दवा कितनी तीखी है यह पता लगाने के लिए उसे चख कर देखते हैं। एसएमएस में हम संता-बंता के मजाक वाले जोक्स तो रोज फारवर्ड करते हैं लेकिन हम रोज जितनी भूल करते हैं उन्हें सुधार ना सकें तो कम से कम उन पर हंसना ही सीख लें। जिस दिन हम अपने पर हंसना सीख जाएंगे उस दिन से हम में स्वत: सुधार की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी।
nice thoughts.
ReplyDeletegood.
i liked it.
thanks.
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kyaa baat hain rana ji???
ReplyDeletesab theek to hain????
aapne blogging kam kyon kar di hain????
itne lambe samay baad kaise post likhi hain???
pehle to har hafte likhaa karte thae???
ab ok to hain???
thanks.
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अच्छा और जीवनोपयोगी लिखते हैं आप. आपकी बातें पढ़कर सुधर जाने को मन करता है जी...
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