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Thursday, 23 July 2009

एक बार सोचें तो सही अच्छा लगेगा

मन को समझाने के यूं तो कई साधन हैं लेकिन बिना एक धेला खर्च किए कोई सर्वोत्तम साधन मुझे लगता है तो वह शब्द ही है। शब्द आपको सांत्वना देते हैं, साहसी भी बनाते हैं और समझदार तो आप हो ही जाते हैं। मुझे अच्छे-बुरे वक्त में जो शब्द सहारा देते हैं या जिन वाक्यों की ताकत से छोटे-बड़े दुखों का आसानी से सामना कर सकता हूं वो शब्द हैं 'जो हुआ अच्छा हुआ´ और 'साथ क्या लाए थे´।

ये दोनों लाइनें लगभग सभी धर्मग्रंथों का-विशेषकर गीता का-तो निचोड़ ही मानता हूं। रामचरित मानस-गीता आदि धर्मग्रंथों के पं. तनसुखराम शर्मा सहित अन्य कई मर्मज्ञ हमारे दोनों जिलों में हैं, जो बहुत सरल-सहज तरीके से व्याख्या कर सकते हैं। मैंने अपने अल्पज्ञान से भगवान श्रीकृष्ण को स्थितप्रज्ञ कहे जाने का यही अर्थ समझा है जो हर हाल में एक-सा रहे यानी 'क्या साथ लाए थे´ का भाव रखें। इसी तरह 'जो हुआ अच्छा हुआ´ का नजरिया हमें हर दृष्टि से साहसी, संयमवान भी बनाता है। मेरा मानना है जिन्हें रोकर मन हल्का करने के लिए कंधे नहीं मिलते या जिनके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं होता वे भी 'भगवान की ऐसी ही मर्जी थी´ कहकर फिर से सामान्य जिंदगी जीने लगते हैं तो उनके लिए भी शब्द ही सहारा बनते हैं।

बाकी पाठक भी सुख-दुःख में अपने मन को ऐसे ही किन्हीं शब्दों से समझाते होंगे जैसे मैं 'सोचो क्या साथ लाए थे´ या कभी 'जो हुआ अच्छा हुआ´ शब्दों की ताकत से अब तक छोटी-बड़ी मुसीबतों से पार पाता रहा हूं। इन वाक्यों में पता नहीं कितनी और कैसी अद्भुत शक्ति है कि बड़े से बड़े हादसे में संयत रहने की क्षमता मिल जाती है। दुःख का पहाड़ भी राई जैसा छोटा और कपास जितना हल्का लगने लगता है।

मुझे तो उक्त लाइनें 'मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा´ जितनी ही प्रेरणादायी लगती हैं। ये लाइनें मैंने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के किसी साक्षात्कार में पढ़ी थी जिसका उल्लेख उन्होंने अपने बाबूजी (हरिवंशराय बच्चन) को याद करते हुए किया था।

मेरे प्रिय शब्दों ने इस बार फिर ढाढ़स बंधाया। हुआ यूं कि बिटिया का फोन आया, बाकी बातों के बाद उसने कहा पापा एक दुःख भरी खबर भी सुनानी है। मैंने पूछा- क्या हुआ? उसने जो कुछ बताया उसका सार यह है कि वह जिस दुपहिया वाहन से आ रही थी वह अचानक स्लिप हो जाने से गिर गई, उसे ठोडी में चोट लगी, चार टांके भी लगे, पीछे बैठी भाभी को भी चोटें लगीं।

मैंने जब हमेशा की तरह वाक्य दोहराया कि जो हुआ अच्छा हुआ तो उसे जरा भी न तो आश्चर्य हुआ न मजाक लगा। मैंने उससे ही पूछा ऐसा क्यों कहा, इसका मतलब बता, उसने कहा अरे पापा मुझसे ज्यादा बोलते नहीं बन रहा आप ही बता दो। मैंने उसे समझाया यह तो तुम्हारी गाड़ी गली में फिसली यदि किसी व्यस्त चौराहे या हाइवे पर फिसलती पीछे से कोई भारी वाहन आ रहा होता तो क्या हालत होती- इसलिए जो हुआ अच्छा हुआ।

इसी एक लाइन के दर्शन ने मुझे मां की अचानक हुई मृत्यु का सदमा सहने में भी ताकत दी। मैं यदि कहीं टूर पर होता, पत्नी-बच्चों सहित कहीं घूमने निकल जाते और घर में अकेली रही मां चल बसती तो, हम सब ताउम्र खुद को अपराधी मानते रहते कि अंतिम समय में कोई पास नहीं था। पता नहीं क्या इच्छा रही होगी, कैसे प्राण निकले होंगे।

मेरे अब तक के जीवन में तो इन लाइनों का प्रेरणादायी प्रभाव रहा है। परिवार, मित्रों, नौकरी आदि में कई बार उतार-चढ़ाव आए, हताशा, कुंठा और आक्रोश ने भी मनमानी करने की कोशिश की लेकिन अंधेरी सुरंग में जो हुआ अच्छा हुआ शब्द पंक्ति रोशनी की पतली सी किरण बनकर चमक उठी।

परिवार के तनाव, बच्चों की परेशानी, बिजनेस के उतार-चढ़ाव, नौकरी की टेंशन से जूझते मित्रों-पारिवारिक सदस्यों का मन बड़ा हल्का हो जाता है जब उन्हें इस एक लाइन का मर्म समझ आ जाता है। कभी आप याद करके देखिए आपके बच्चे के हाथ से कांच का गिलास फिसलकर फर्श पर गिरा, आपने एक पल की देर किए बिना उसे तमाचा जड़ दिया, फर्श पर बिखरे कांच के टुकड़ों के साथ बच्चे की आंखों से टपकते आंसू भी घुलमिल गए। आपके तमाचे से न तो कांच के टुकड़े गिलास में तब्दील हुए न ही बच्चे को सीख मिली, वह हमेशा के लिए कांच के गिलास और तमाचे के भय से जरूर पीड़ित हो

यदि यहां 'जो हुआ अच्छा हुआ´ के नजरिए से सोचें तो? बच्चे के हाथ से गिलास तो छूट ही गया पर यह तो अच्छा हुआ कि उसके हाथ में कांच नहीं लगा। कल्पना कीजिए भयभीत-नासमझ बच्चा फर्श पर फैले कांच के टुकड़ों पर से भागता हुआ आपकी मार के डर से किसी कोने में दुबकने का प्रयास करता तो... उस पांच रुपए के गिलास के बदले घाव ठीक न होने तक उसकी मरहम पट्टी पर अच्छा खासा खर्च हो जाता। यह लाइन जिंदगी आराम से गुजारने, अपना खून न जलाने के हिसाब से देखें तो अति उत्तम है लेकिन सिर्फ दर्शन से जीवन भी तो नहीं चलता। आप लापरवाही से गाड़ी चलाएं खुद के हाथ-पैर तुड़वाएं, दूसरे को घायल करें, नियंत्रण के अभाव में बच्चे बिगड़ते जाएं, आप धंधे-पानी में ध्यान न लगाएं न समय पर दुकान खोलें और न ग्राहक को भगवान की नजर से देखें, घी-तेल दूध-मसालों में मिलावट करते पकड़े जाएं, प्रकरण दर्ज हो जाए, लोगों के काम समय पर न करें, न अपनी नौकरी के प्रति ईमानदार रहें और बगैर भेंट पूजा के फाइल आगे न बढ़ाएं, रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडे़ जाएं फिर भी यदि आप जो हुआ, अच्छा हुआ वाला भाव रखें तो यह न तो खुद के लिए, न परिवार के लिए न कर्म और न मानव धर्म की दृष्टि से ठीक है।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

5 comments:

  1. बहुत अच्छे आप भी ब्लोगारिये हैं... जानकर ख़ुशी हुई...

    आपकी लगभग सभी पोस्ट्स पढ़ी.. अच्छी लगी....
    आगे भी बेहतरीन पढाते रहोगे... ऐसी आशा है...

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  2. rana ji,
    aaj ka pachmel bahut hi badhia laga.
    aaj ka pachmel jisne bhi padha hoga, uska toh jeevan hi sudhar jaayegaa.
    aakhir aapne doobte ko sahaaraa dene waali baatein jo likhi hain.
    aapka yeh post kitne niraash-hataash logo kaa jeevan badal dega????, yeh aapko bhi nahi pata lag paayega.
    aap nahi jaante rana ji, ki aapne kyaa kar daalaa hain......aapne kitne logo ka jeevan sudhaar diya hain????.
    thanks.

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  3. शब्‍द क्‍या है? अपनी कविता की चंद पंक्तियां प्रस्‍तुत हैं -

    घर में पसरा जब सूनापन

    मातम का दरबार लगा

    सोना चांदी बिखरा कूट कूट

    आंसू बहते थे जार जार

    गूंगा वैभव कैसे ढांढस देता

    कोई भी काम नहीं आया

    शब्‍दों की थपकी माथे पर

    आश्‍वस्‍त कर गयी धैर्य बंधा

    कुछ भी साथ न जाने पाएगा

    कितनी भी करलो तुम सजधज

    मेरे झोले के शब्‍दों से ही

    अब सूने घर में आ पाएगी कलकल।

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