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Friday, 8 May 2009

अपने मोबाइल को चुप रहना कब सिखाएंगे

इस बार ऐसा कुछ संयोग बना कि एक ही दिन दो प्रमुख लोगों के यहां दहाके में शामिल होना पड़ा और उसके अगले दिन एक परिचित के साथ अस्पताल में भर्ती उनके एक रिश्तेदार की मिजाजपुर्सी के लिए जाना पड़ा। इन सभी जगहों पर यह देखकर ताज्जुब हुआ कि बच्चों से ज्यादा तो बड़ों में शिष्टाचार-संस्कार की कमी है। जब हम ही शिष्टाचार का ध्यान नहीं रख सकते तो अपने बच्चों में संस्कार को लेकर चिंतित होना भी छोड़ देना चाहिए। विधायक राधेश्याम गंगानगर के दामाद के दहाका कार्यक्रम में सैकड़ों लोग अपनी भावना व्यक्त करने जुटे थे। कई लोगों ने तो हनुमान मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मोबाइल साइलेंट मोड पर कर लिए थे। कई ऐसे भी थे जो आए तो थे प्रियजन की आत्मा की शांति के लिए किंतु प्रियजन से ज्यादा प्रिय मोबाइल था उनके लिए। ऐसे ही दृश्य गणेशगढ़ में डा. ब्रजमोहन सहारण की माताजी के बारहवें पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा में भी देखने को मिले। कल्पना कीजिए तब कितनी हास्यास्पद स्थिति बनी होगी जब दो मिनट के मौन की अवधि में इन लोगों के मोबाइल फिल्मी गीतों वाली कॉलर ट्यून के साथ बजते रहे। कुछ ऐसा ही दृश्य अस्पताल में भी था, मरीज का हालचाल पूछना तो धरा रह गया। मौसम के बदलाव से लेकर गेहूं का ट्रक न पहुंचने, बारदाना संकट और चुनावी हारजीत को लेकर मोबाइल पर अनुमान व्यक्त किए जा रहे थे। से जुड़े ये सारे प्रसंग ऐसे हैं जहां मौन रहना ही हमारी भावनाओं को सहजता से व्यक्त करने का सहज तरीका होता है। पर हमारी और हमारे समाज की यही तो खासियत है जहां चुप रहना चाहिए वहां बेमतलब बोलते रहते हैं और जहां बोलना जरूरी हो वहां जुबान लकवाग्रस्त हो जाती है। गोष्ठी, सभा, सम्मलेन, नाटक, सिनेमा हॉल में भी चाहे जब मोबाइल बज उठते हैं। ऐसे संस्कारविहीन मोबाइल प्रेमियों के लिए ही आयोजकों को निमंत्रण पत्र पर हिदायत लिखनी पड़ती है कि कार्यक्रम के दौरान मोबाइल बंद रखें, यह अलग बात है कि पढ़े लिखे लोगों के कार्यक्रमों में भी इस लिखित हिदायत का अक्षरशज् पालन नहीं हो पाता। अस्पताल में बेसुध पड़े मरीज या दिवंगत आत्माएं तो सिखाने नहीं आएंगी कि शवयात्रा, शोकसभा, स्कूल, अस्पताल, अदालत आदि में जाते वक्त मोबाइल साइलेंट मोड पर कर लें। कई तो भाई लोग ऐसे भी देखे जो साइलेंट मोड पर रखे मोबाइल की लाइट चमकते ही दबे स्वर में बात करने जुट जाते हैं। अब मोबाइल ऐसा स्टेटस सिंबल नहीं रहा जो आपको समाज में विशिष्ट दर्जा दिलाता हो क्योंकि चाय वाले, सब्जी वाले से लेकर आपके इलाके में नालियों की सफाई करने वाले तक के पास हल्का-पतला मोबाइल सेट मिल ही जाएगा। इससे भी आश्चर्यजनक तो यह है कि बेवक्त बज उठने वाले मोबाइल के कारण जब आसपास के बैठे बाकी लोग आपको लगातार घूरते रहते हैं तब भी आप समझना नहीं चाहते कि आपसे क्या गलत हुआ है। बच्चे तो हैं नहीं कि कोई आपको संस्कार सिखाएगा, आप बाकी लोगों की अच्छाई अपना तो सकते हैं। ऐसा भी नहीं कर पा रहे हैं तो इसलिए कि हमें तो दूसरों की गलतियां-कमजोरियां बताने-सुनाने में अति आनंद आता है। जिस दिन हम दूसरों की गलतियों से खुद में सुधार की पहल करने लगेंगे तो बात बन जाएगी। गायत्री परिवार का तो ध्येय वाक्य ही यही है- हम बदलेंगे, जग बदलेगा। तो आप का पड़ोसी बदले न बदले पहले आप तो अच्छे बदलाव का संकल्प ले लीजिए।
जाइए अंगुली पर तिलक लगवाकर आइए
पता है ना आज मतदान करने जाना है। दिमाग में यह ख्याल तो आने ही मत दीजिए एक मैंने वोट नहीं दिया तो क्या फर्क पड़ता है। ठीक है कि जो वोट मांग रहे हैं वो सब बुरे हैं आप इन बुरे लोगों में से कम बुरे को तो चुनिए। आपकी नजर में ये जो सब बुरे हैं तो इन्हें ढीठ बनाने के दोषी भी आप-हम ही हैं। मतदान किया और सो गए। पांच साल आपके सांसद ने, सरकार ने आपके लिए कुछ नहीं किया इसलिए आप वोट नहीं देंगे, ऐसा कोई विचार मन में है तो तराजू पर तौलिए तो सही इन पांच वर्षों में आपने सांसद-विधायक-सरकार को अपने क्षेत्र में काम करने के लिए कितनी बार बाध्य किया। भ्रष्टाचार अब जो शिष्टाचार बनता जा रहा है वह इसीलिए कि हम अपनी जिम्मेदारी की गाड़ी इसी आसान राह पर दौड़ाना चाहते हैं। आप को अपने जनप्रतिनिधि की निष्क्रियता पर अंगुली उठाने का अधिकार तभी मिलेगा जब आप अंगुली पर तिलक लगाकर मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। किसी को हराने या जिताने के लिए मत तो देना ही पड़ेगा। दोस्तों के बीच गर्व से यह कहें कि क्वमैंने तो इस बार वोट ही नहीं दियां तो पहले सोचिएगा मुंबई के उन लाखों वोटरों की उदासीनता को जो 26/11 की त्रासदी पर निकम्मे जनप्रतिनिधियों को तो कोसते रहे लेकिन गर्मी के कारण वोट डालने ही नहीं गए। आप यदि गर्मी से घबराकर वोट डालने से बचना चाहते हैं तो फिर आप से हजार गुना अच्छे और जागरूक तो तंग बस्तियों के लोग, मजदूर-किसान हैं जो वोट डालने जा रहे हैं। जाइए अंगुली पर आप भी तिलक लगाकर आइए।
बालाजी के भक्तों का साथ तो सफलता हाथों हाथ
तेज होती गर्मी और प्यासे परिंदों के लिए परिंडे रखने के लिए शहर के लोगों को प्रेरित करने के लिए भास्कर ने जो अभियान शुरू किया, उसे लोगों ने हाथों हाथ लिया। स्कूलों-घरों में परिंदों के प्रति प्रेम उमड़ने भी लगा है। भास्कर का यह अभियान सिद्ध झांकी वाले बालाजी भजन मंडल के सदस्यों के प्रयासों से और आसान हो गया है। प्रति मंगल एवं शनिवार को मंडल के सदस्य जहां भी निज्शुल्क भजन करते हैं वहां आधी रात जागरण में एकाधिक बार लोगों सेअनुरोध करते हैं कि परिंदों की प्राणरक्षा का पुण्य परिंडों में दाना-पानी रखकर कमाएं। बालाजी के भक्तों की इस भावना का भास्कर की अपेक्षा अधिक कारगर असर भी हो रहा है लोगों पर। अच्छा हो कि ग्रीन गंगानगर के सपने को साकार करने के लिए भी बालाजी मंडल के सदस्य जागरण में न सिर्फ पौधारोपण का अनुरोध करें वरन् जहां भी जागरण को जाएं उस परिवार से नीम का पौधा भी लगवाएं। ठंडे नीम से पर्यावरण तो सुधरेगा ही यह गर्म शहर कुछ ठंडा भी होगा। मंडल की सूची में अगले तीन साल तक के लिए जागरण की तारीखें बुक हैं। एक महीने में चार, एक साल में 48 और तीन साल में 144 जागरण तो होने ही हैं यानी शहर में इतने पेड़ लगाने का पुण्य तो मंडल के खाते में दर्ज हो ही सकता है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

2 comments:

  1. आज का पचमेल भावपूरण और प्रेरणादायी है. मोबाईल फोन का बढ़ता प्रयोग हमें संवेदनहीन और गैर जिम्मेदार करता जा रहा है. इस मुद्दे पर पाठकों का ध्यान खींचने के लिए साधुवाद.

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  2. बिलकुल सही , जब हम बड़े शिष्टाचार का पाठ नहीं पढ पा रहे हैं तो बच्चों को अच्छे संस्कार कहां से देंगे, कहां क्या बोलना है और कहां क्या व्यवहार करना है , ये जीवन में सीखना बहुत जरूरी है

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