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Thursday, 28 May 2009

अच्छे की चिंता में हम बन न जाएं खलनायक

फोन पर मेरी भांजी रोए जा रही थी और उससे ज्यादा उसकी मां की रुलाई फूट रही थी। 12वीं सीबीएसई के रिजल्ट में मिले कम अंकों के कारण भांजी के सारे सपने इन आंसुओं में बदरंग जो हो गए थे। मां के आंसू इसलिए नहीं थम रहे थे कि 12वीं की मार्कलिस्ट का महत्व बच्चों को हम सत्र शुरू होने वाले दिन से ही समझाते हैं। मुझे तो अब लगने लगा है कि निरंतर पढ़ाई के लिए कहते रहने वाले अभिभावकों की मंशा तो यही रहती है कि उनके बच्चे अपने क्षेत्र में नायक बनें लेकिन खुद बच्चों की नजर में वे कब खलनायक बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। परीक्षा और परिणाम का सीधा सा मतलब है किसी एक का नंबर वन पर पहुंचना और बाकी का उस नंबर तक न पहुंच पाने के लिए अफसोस करते रहना। कई बच्चों का तो यह अफसोस भी श्मशान वैराग्य की तरह होता है, जितनी देर श्मशान में रहे उतने वक्त जीवन की निरर्थकता पर सार्थक चिंतन और वहां से बाहर निकलते ही फिर दुनियादारी में व्यस्त। कुछ बच्चे इस अफसोस को अप्रत्याशित सफलता में बदलने के लिए चुनौती के रूप में भी स्वीकार कर लेते हैं। अभी संपन्न हुए आईपीएल मैच फाइनल की विजेता टीम डेक्कन चार्जर्स हो या गत वर्ष विजेता रही राजस्थान रायल्स। शुरू से फिसड्डी रही ये टीम फाइनल मैच में बेहतर प्रदर्शन कर ट्राफी पर कब्जा जमा सकी तो इसलिए कि हर बार के प्रदर्शन, असफलता और खामियों से इन क्रिकेटरों ने सीखा और उसमें सुधार करते हुए अप्रत्याशित सफलता हासिल की। सारे बच्चे मेरिट में नहीं आ सकते यह जवाब देकर अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने वाले बच्चे यह भी तो याद रखें जो मेरिट में आए हैं वो उनके ही बीच से हैं। दसवीं का परिणाम बच्चों के लिए ठीक वैसा ही है जैसे किसी को पहला हार्ट अटैक। दसवीं में कुछ नहीं कर पाए तो अगले दो साल और हैं आपके लिए, 12वीं में बेहतर कर दिखाने के लिए। पहले हार्ट अटैक के बाद भी मरीज अपनी दिनचर्या में सुधार, परहेज, डाक्टरी परामर्श की अनदेखी करता रहे तो दूसरा अटैक जानलेवा और बाकी लोगों के लिए चर्चा का मुद्दा भी हो सकता है- कल तो अच्छे भले थे। क्या अच्छे नंबरों से पास होने के लिए अच्छा स्कूल बैग, महंगा दुपहिया वाहन, हर सब्जेक्ट की ट्यूशन जरूरी है। यदि इसके बाद भी रिजल्ट फिसड्डी रहे तो घर से हजारों मील दूर सेना में पदस्थ उस सैनिक के बच्चे, नरेगा में गड्ढे खोदने वाले मजदूर, चाय की रेहड़ी लगाने वाले के वो बच्चे सम्मान के हकदार हैं जो टूटी साइकिल, रिश्तेदारों के हमउम्र बच्चों की उतरन पहनकर और सेकंडहेंड किताबों के सहारे सफलता के कीर्तिमान ध्वस्त करने के साथ ही अन्य अभिभावकों की ईष्र्या का कारण बनते जाते हैं कि काश हमारे बच्चे भी कुछ ऐसा कर दिखाते। कई बच्चों का बहाना होता है पढ़ाई में न सही अन्य किसी विधा में तो आगे हैं, बात सही भी लेकिन आप तलवार चलाना जानते हों किंतु पैर में चुभा कांटा तो सुई से ही निकलेगा वहां तलवार का क्या काम। रिजल्ट यानी परिणाम अर्थात इंसान उम्र भर सीखता, करता और परिणाम प्राप्त करता रहता है। पांचवीं और आठवीं की परीक्षा में अच्छे नंबरों के अब उतने मायने नहीं रह गए लेकिन इन कक्षाओं के परिणाम से भी दसवीं और बारहवीं का रिजल्ट बेहतर बनाने की सीख तो ली ही जा सकती है। बच्चों का रिजल्ट बिगड़ ही गया हो तो फिर अभिभावकों को भी अपना नजरिया बदलना चाहिए ऐसा तो बिल्कुल न करें कि परिणाम से हताश बच्चे आपके तानों और दूसरे से तुलना का बोझ न सह पाएं।
तूड़ी में घालमेल
परिणाम तो श्रीगंगानगर कलेक्टर राजीव सिंह ठाकुर ने भी अच्छा ही दिया है। मवेशियों के लिए चारे (तूड़ी) के परिवहन में गंगानगर (राजस्थान) से अबोहर (पंजाब) के बीच चलने वाले घोटाले को उजागर करना इसलिए भी महत्वपूर्ण रहा कि फर्जी बिल, बिल्टी के आधार पर यहां से वहां तक तूड़ी के ट्रक धड़ल्ले से जा रहे थे। वर्षों से चल रहे इस घोटाले को कलेक्टर ने न सिर्फ उजागर किया, अब इसकी तह तक भी जा रहा है जिला प्रशासन। तूड़ी के कारोबार से जुड़े लोग तो नाराज होंगे ही लेकिन बेजुबान मवेशियों के तो हित में ही काम हुआ है।
कागजी जनसेवा
वैसे तो जनसेवा का मतलब ही है काजल की कोठरी से बेदाग निकलना अर्थात सेवा कार्यों में ऐसी पारदर्शिता कि कोई आरोप नहीं लगे, विरोधियों को भी कीचड़ उछालने का मौका नहीं मिले। 1980 में गठित जनसेवा समिति इन 28 वर्षों में भी हनुमानगढ़ में जनाना अस्पताल का निर्माण नहीं करवा सकी तो लोगों को अंगुली उठाने का हक तो मिलेगा ही। जनाना अस्पताल के नाम पर वर्षों से चल रहा घालमेल भी कलेक्टर नवीन जैन की सख्त कार्रवाई से ही उजागर हुआ है। बताते हैं कि इस जनसेवा समिति के पदेन संरक्षक हनुमानगढ़ के कलेक्टर ही होते रहे हैं लेकिन इन 28 वर्षों में कई कलेक्टर आए और चले गए, कार्रवाई का साहस दिखाया तो वर्तमान कलेक्टर ने ही। 28 साल में जनाना अस्पताल बन नहीं पाया और कार्रवाई के 24 घंटों में ही एक करोड़ रुपए जुटा लिए जाएं तो समझा जा सकता है कि समिति से जुड़े सेठ लोग कितने प्रभावी हैं। जाहिर है प्रशासन की इस कार्रवाई का उद्देश्य यही है कि समिति से जुड़े पदाधिकारियों को जनाना अस्पताल निर्माण की सद्बुद्धि मिले। जिले के लोग तो इस कार्रवाई से खुश हैं और मान रहे हैं कि बाकी पड़ी फाइलों की धूल भी झटक जाएगी।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

4 comments:

  1. KIRTI BHAI
    atyant sarthak lekhan ke liye sadhuvad.silsila jaari rahe.
    VINOD NAGAR
    vinodnagar56@gmail.com

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  2. 'पचमेल' में आपके सार्थक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े विचार पढ़कर प्रसन्नता होती है. अभिभावक को बच्चे का मनोविज्ञान समझाना चाहिए और उस पर अनावश्यक मानसिक दबाव न बनाया जाये तभी सर्वांगीण विकास हो पायेगा. इसके लिए जरूरी यह भी है की अभिभावक खुद को आदर्श रूप में प्रस्तुत करे तथा बच्चे की वास्तविक प्रतिभा की पहचान कर उसे प्रोत्साहित करे. मार्कलिस्ट की बजाय मार्कशीट शब्द उपयुक्त रहेगा. मैटर को जस्टिफाई कर दिया करें तो कुछ और आकर्षण बढेगा. ब्लॉग आकर्षक और वैचारिक रूप से समृद्ध बन गया है. साधुवाद.
    -सत्यनारायण सोनी

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  3. इसे पढ़कर एक सुखद अहसास हुआ। कलम यूही चलती रहे। कोई न रोक सके न टोक सके। बढाए लिखकर हमारा मान। सदियाँ करेगी गुणगान। कीर्ति आपकी हो चहू और रण में न दिखे कोय ओर।

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  4. राणा जी, आपकी लेखनी की निरंतरता इस भागमभाग की जिंदगी में ठंडी बयार का अहसास कराने वाली है। आदरणीय मधु जी भी अब हाई-टेक हो गए हो गए हैं जिसके लिए आप भी धन्यवाद के पात्र हैं।

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