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Saturday, 25 April 2009

नमस्कार का जवाब देने में बुराई तो नहीं

आप इतना रूखा बोलते होंगे, आपके आटिüकल्स से ऐसा तो नहीं लगता। भास्कर के हनुमानगढ़ निवासी एक प्रबुद्ध पाठक (98284-4422888) के इस एसएमएस ने मुझे मेरे व्यवहार में सुधार के लिए आइना दिखाने जैसा काम किया है। इस सारे मामले के जिक्र से पहले बाकी पाठकों के लिए भी सीखने की बात यह है कि आप अंजाने में भी ऐसा व्यवहार न करें, जिससे सामने वाले के मन में आपकी गलत छवि बन जाए। यदि ऐसा हो रहा हो तो अच्छाई इसी में है कि आप गलतफहमी तत्काल दूर कर दें और क्षमा मांगकर खुद की भूल को सुधारने का प्रयास भी करें।हुआ यूं कि हमारे उक्त प्रबुद्ध पाठक का एक समाचार के संदर्भ में मुझे फोन आया जबकि वे (Žयूरो कार्यालय हनुमानगढ़ में) पदस्थ स्टाफ के सदस्यों को भी जानते थे। मैंने उनकी बात सुनी, स्टाफ के एक वरिष्ठ सदस्य को कवरेज करा लेने के निर्देश देकर फोन बंद किया ही था कि उक्त एसएमएस प्राप्त हुआ। आसान तरीका तो यही था कि मैं एसएमएस की अनदेखी कर अपने बाकी काम निपटाता लेकिन जो भी लोग सार्वजनिक जीवन में हैं वे यदि ऐसा करने लग जाएं तो लंबा नहीं चल सकते। मैंने उन्हें फोन किया और सबसे पहले माफी मांगी कि मेरे व्यवहार से उनका मन दुखा। उदारमना पाठक ने मुझे माफ कर दिया, फोन करने पर आभार भी जताया। मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे यह बताएं कि मेरे व्यवहार में ऐसा क्या था जिससे उनका मन दुखा। मेरे बार-बार के आग्रह पर उन्होंने कहा कि `मैंने फोन पर बात शुरू करने से पहले तीन बार नमस्कार किया लेकिन आप यही दोहराते रहे काम की बात बताइए।ं फिर उनसे मैंने पूछा आपका काम हुआ या नहीं। उन्होंने कहा जी कुछ देर बाद ही आपके रिपोर्टर कवरेज के लिए आ गए थे। पूरी चर्चा से वे संतुष्ट नजर आए और उन्होंने कहा भी कि मुझे अच्छा नहीं लगा था, इसलिए एसएमएस कर दिया लेकिन अब माफ भी कर दिया है।यदि मैं उन प्रबुद्ध पाठक को फोन नहीं करता तो उनका तो यह परसेप्शन (धारणा) बन ही गया था कि आप इतना रूखा बोलते हैं। अखबार के एक भी पाठक का ऐसा परसेप्शन किसी एक व्यçक्त के बार में बनने का मतलब है पूरे स्टाफ को एक तराजू में तौलना और अखबार यानी एक ब्रांड के बारे में गलत छवि बनना। यह ऐसा ही है कि सफेदझक कपड़ों की अपेक्षा लोगों की नजर किसी कोने पर लगे छोटे से काले धŽबे पर ही जाए। हमारी संस्कृति और संस्कार इतने संवेदनशील हैं कि घर आए व्यçक्त से चाहे जितने प्रेम से बात कर लें। चाय-भोजन न कराएं लेकिन पानी के लिए नहीं पूछा तो सुनने को मिल सकता है उनके घर गए थे, पानी तक के लिए नहीं पूछा। मतलब यह कि आप सार्वजनिक जीवन में हों, किराना दुकान चलाते हों, ऑफिस में बॉस हो, आपको अपनों से काम लेना है या अपना प्रोडक्ट बेचना है तो डांट-फटकार से या दूसरे के प्रोडक्ट की खामियां गिनाकर आप अपना माल लंबे समय तक नहीं बेच सकते। इसके लिए तो यही जरूरी है कि आप अपने व्यवहार में सुधार की तरह अपने प्रोडक्ट में भी निरंतर सुधार करते रहें। जब अपनी गोद में अपरिचित बच्चे को लेने के लिए तुतलाती जबान में मुस्कुराते, ताली बजाते उस बच्चे का विश्वास जीतना चाहते हैं तो अपने परिचितों, सहकर्मियों, ग्राहकों से रूखा व्यवहार करके उनका दिल क्यों दुखाते हैं?
बार संघ का दिल दुखा दिया
बात दिल दुखाने की ही चली है तो बार एसोसिएशन श्रीगंगानगर की आपात बैठक कोरम के अभाव में हो ही नहीं पाई। लिहाजा जिला-सत्र न्यायाधीश उमेशचंद्र शर्मा के खिलाफ मोर्चा खोलने का मन बनाने वालों का दिल भी दुखा होगा। बैठक में पर्याप्त उपस्थिति न होना यह भी संकेत हो सकता है कि बाकी सदस्य बात आगे बढ़ाने के मूड में नहीं हैं। बार संघ के पदाधिकारियों का भी दिल दुखा तो इसलिए कि डीजे ने लीक से हटकर मीडिया तक बात कही और सभी अदालतों में नोटिस बोर्ड पर भी अपना कथन चस्पा करा दिया। उच्च न्यायालय, सवोüच्च न्यायालय में भी बार संघ कार्यरत हैं, वहां की कई अच्छी बातें देर-सवेर जिला बार संघों तक भी पहुंचेंगी ही। तब संभव है अधिवक्ताओं के दिल नहीं दुखें।
दुकानदारों के दिल से भी पूछे कोई
दिल तो हनुमानगढ़ टाउन के स्टेशन रोड, शनिदेव मंदिर वाली गली, दुगाü कॉलोनी क्षेत्र के दुकानदारों का भी दुखा होगा, जब अवैध निर्माण तोड़ने वाला दस्ता पहुंचा था। अब अपने हाथों वह सारा निर्माण तोड़ते हुए भी इनका दिल दुख रहा है लेकिन जब सड़क का हिस्सा आजाद होगा तो फायदा किसी और क्षेत्र को नहीं, इन्हीं सभी दुकानदारों को ही मिलेगा। अच्छा हो कि इन आंसू बहाते दुकानदारों से बाकी क्षेत्र के लोगा भी सबक लें। चुनाव की व्यवस्तता से मुक्त होने के बाद दोनों जिलों के अधिकारियों को व्यस्त मागोZ, चौराहों को अतिक्रमण मुक्त कराने के लिए संबंधित क्षेत्र के व्यापारिक संगठनों को बुलाकर बात करनी ही चाहिए।
बैंकों में खाता खुल जाए तो
पढ़ने के मामले मेें जागरूकता की कमी एक न एक दिन दूर होगी ही लेकिन पढ़ाने वालों में भी या तो जागरूकता की कमी है या फिर उनकी हालत भी दांतों के बीच जुबान जैसी ही है। बीएड कॉलेज में पढ़ाने वाले हों या निजी स्कूल का स्टाफ, ऐसे सारे शैक्षणिक संस्थानों को संचालित करने वाले अपने स्टाफ को रखते तो ऊंची तनवाह पर हैं लेकिन देते हैं कम वेतन। पूरा परिवार जब किसी एक की तनवाह पर निर्भर हो तब समाज सुधार का ज्वालामुखी भी मजबूरी की मिट्टी से ठंडा हो जाता है। दोनों जिलों में चल रहे बीएड कॉलेजों सहित अन्य शिक्षण संस्थानों में ज्यादातर जगह कम तनवाह पर पढ़ाने वालों का बस एक ही सपना है कि उन्हें बैंक से तनवाह मिलने लग जाए। ऐसा होगा तो सारा झूठ, सच में बदल जाएगा। पर ऐसा भी तभी होगा जब कलेक्टरों को कुछ भले कार्य करने की इच्छा होगी।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...

2 comments:

  1. राणा साहब आपकी साफगोई कबीले तारीफ है। इंसान की फितरत है कि न वो अपने भीतर झांकना चाहता है और न ही वो शख्स उसे अच्छा लगता है जो उसको आइना दिखाए। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भी यही आचरण करते हैं। यही कारण है सत्ताधीश जमीनी हकीकत को सबसे आखिर में पहचानने वाले लोग होते हैं। जब तक धूल सने पाँव लिए दुश्मन कि फौज किले में दाखिल नही हो गई तब तक दिल्ली का सुलतान यही कहता रहा कि "अस्त दिल्ली दूरस्त" यानि अभी दिल्ली दूर है। अमेरिका और पाकिस्तान तालिबान कि उदारवादी प्रजाति को ढूंढने में लगे हैं। ये तो ऐसा ही है कि हम किसी उग्रपंथी सूफी संत को ढूँढना शुरू करें। काश! सभी लोग ख़ुद को सुधारने के प्रति ईमानदारी से लगे रहें, जैसे कि आप लगे हैं।
    शुभकामनाओं सहित,
    आर.के.सुतार,
    वास्तु सलाहकार,
    बीकानेर।

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  2. bilkul sahi baat, saarvjanik jeevan mein rahte hue kahin na kahin apne andar jhankanaa zaroori ho jata hai, lekin aapki saafgoi kaabiletaarif hai.

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