Thursday, 29 January 2009
पुचकार से सुधार, नहीं तो `छापामार´
पहले मार अब पुचकार
मार के बाद पुचकारने की प्रक्रिया तो हनुमानगढ़ में भी शुरू हो गई है। कलेक्ट्रेट कर्मचारियों के स्वास्थ्य की चिंता दशाü कर यह मैसेज तो दे ही दिया है कि हम इतने भी बुरे नहीं। रियायती दर पर कर्मचारियों का स्वास्थ्य परीक्षण कराए जाने की पहल स्वागत योग्य है, लेकिन ऐसी पहल सिर्फ कलेक्ट्रेट स्टाफ के लिए ही क्यो? बाकी विभागों के प्रमुखों को भी अपने स्टाफ की चिंता पालनी चाहिए। विशेषकर सिंचित क्षेत्र विकास विभाग को तो अपने स्टाफ को आलस भगाने के लिए तगड़ा डोज देना ही चाहिए। खाला निर्माण से जुड़े कर्मचारी अब ऐसा काम करके दिखाएं कि विभाग पर लगे निकम्मेपन के दाग छूट जाएं।
आंख खुली भी तो एक दिन पहले
जेल महानिदेशक ने जेलों की दशा सुधारने के लिए दौरा किया और ठीक एक दिन पहले जेल में नशे की गोलियां सप्लाई करने वाले पूर्व सैन्यकर्मी को जेल प्रशासन ने पकड़ लिया। देखा जाए तो इस सजगता पर पीठ थपथपाई जानी चाहिए, लेकिन ऐसा करने से पहले यह भी तो पूछा जाए कि भई आंख खुली भी तो एक दिन पहले और पकड़ा भी तो ठेका कर्मी को। जेलों की दुर्दशा का जो आलम है उसे तो सुधारने में सदियां लग जाएंगी, लेकिन कैदियों के प्रति जेल प्रशासन का रवैया भी तो अच्छा नहीं रहता। हत्या-लूट की वारदात के आरोपी जेल में जाने के बाद तब ठगे से रह जाते हैं कि उन्हें लूटने वाले तो यहां हैं। मुलाकात हो, सुख-दु:ख की सूचना से लेकर विलासिता की सामग्री पहुंचाने तक के रेट तय हैं, ये बातें भी तब उजागर होती हैं, जब अति होने लगती है और कोई कैदी मिठाई के डिब्बे पर चिट्ठी लिखकर कलेक्टर तक पहुंचाता है। वैसे अंधेरगदीü तो डीजीपी जेल के सामने भी आई थी। कैदी ने दूध के नाम पर पानी दिए जाने की शिकायत भी की थी, लेकिन गाय पानी में बैठ गई होगी जैसे मजाक से उन्होंने गई भैंस पानी में कहावत की याद भी दिला दी। दूध में मिलावट पर चीन में मृत्युदंड जैसा प्रावधान है और हमारे यहां मजाक। मिलावट सिर्फ जेल में बांटे जाने वाले दूध में ही हो रही है। ऐसा नहीं है। दोनों जिलों में मिलावट खोरों ने मसाले से लेकर देशी घी तक को नहीं छोड़ा है। नोहर में घी के नकली कारोबार को उजागर तो किया गया, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। यही हाल गंगानगर का है, घी में तो मिलावट है ही खान-पान की बाकी चीजों में भी शुद्धता का पैमाना घटता जा रहा है। बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि सरकारी अमला क्या कर रहा है, विभाग का तो हर वक्त यही रोना है, पर्याप्त स्टाफ ही नहीं है, शहर बहुत बड़ा है, क्या करें, कैसे करें? ऐसी सोच रखने वाले अधिकारी यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी पोçस्टंग ऐसे जिलों में है, जहां के बेटे सीमाओं पर दुश्मन के छक्के छुड़ाते वक्त यह नहीं कहते कि मैं अकेला कैसे मोर्चा संभालू?
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
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Wednesday, 21 January 2009
मर्म न जाने तो कैसा धर्म
दोनों जिलों के लोगों को प्रशासन की सख्ती और सूझबूझ के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए, वरना जनवरी का दूसरा सप्ताह आराम से नहीं गुजर पाता। यूं तो राजतंत्र के निरंकुश होने पर धर्म का अंकुश काम करता रहा है, लेकिन जब धर्म ही अधर्म जैसा नजर आने लगे तो...! राजतंत्र के अंकुश ने धर्म के नाम पर एक-दूसरे के अपमान को आतुर लोगों को तो नियंत्रित किया ही, धर्म की राह पर चलने वाले जब वादों से भटकने और गलत इरादों की ओर बढ़ने लगे तो उन्हें भी बताया कि आपके धर्म से अभी हमारा कर्म बड़ा है।
आप खुद ही समçझए अपना धर्म
धर्म का काम तो नेत्र ऑपरेशन करने वाली मोबाइल यूनिट भी कर रही है, किंतु नोहर में जिस तरह एक पार्षद सहित चार मरीजों की जिंदगी में अंधेरा हुआ और उससे पहले नेत्र शिविरों में जिस तरह अंधेरगदीü सामने आई तो अब लगने लगा है कि ऐसे लोग बातें तो धर्म की करते हैं, लेकिन उसका मर्म नहीं समझ पाते। परिवार के खाने के लिए दस रु. किलो के केले लाएं और कथा के लिए पिलपिले-काले 5 रु. किलो वाले केले चढ़ाएं! ऐसी होती जा रही धामिüक आस्थाओं के कारण ही धर्मादा कायोZ को शक की नजर से देखा जाने लगा है। मरीजों को इन नेत्र शिविरों में आना पड़ रहा है तो यह भी देखा जाना चाहिए कि राजकीय अस्पतालों में आंखों के आपरेशन क्यों नहीं हो रहे? इन व्यवस्थाओं को सुधारने के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तो आने से रहे।
नियमों की बेड़ी, खराबे की व्यथा
रेगुलेशन के लिए आंदोलन की तैयारी में जुटे किसानों पर पड़ी ओले की मार अब प्रशासन के लिए भी नया संकट पैदा कर सकती है। दोनों जिलों में खेत के खेत तबाह हुए हैं। नियम कहते हैं कि मुआवजे के हकदार 50 प्रतिशत से अधिक तबाही वाले किसान ही होंगे और धर्म की बात करें तो 15-25 प्रतिशत तबाही वाले किसान को भी सरकार से भरपूर राहत की आशा है। विधायक चाहेंगे कि सभी पीडि़तों को एक समान राहत मिले। प्रशासन की मजबूरी नियमों की बेडि़यां हैं। जाहिर है रेगुलेशन की लड़ाई से पहले ओले से उपजे असंतोष की लपटें प्रशासन की ठंड भगाएगी।ये हाल है मुस्तैदी का
ओले से किसान परेशान हुए तो बारिश ने गंगानगर के लोगों को मुसीबत में डाल दिया। इस बेमौसम बारिश से ब्लाक एरिए सहित बाकी शहर में विभागों की उदासीनता भी गंदे पानी की तरह फैल गई। लग ही नहीं रहा कि शहर में परिषद नाम की कोई संस्था और उसके पास सफाई का भारी-भरकम अमला भी है। जो रहवासी परिषद को सारे टैक्स चुका रहे हैं, आंदोलन-ज्ञापन, पुतला दहन की जिन्हें फुरसत नहीं है, शांति से जिंदगी गुजारना चाहते हैं। उनकी परेशानी को दूर करने का भी विभाग के पास वक्त नहीं है तो फिर ऐसे भारी-भरकम अधिकारियों और समीक्षा बैठकों का नाटक किसके लिए। कुछ ऐसे ही हाल हनुमानगढ़ में भी हैं। कलेक्ट्रेट कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए 20 लाख रुपए खर्च किए जा रहे हैं। कुछ अधिकारियों को ऐसे कामों में बड़ा आनंद आता है और मातहत ऐसा उत्साह दिखा रहे हैं कि बस सीसीटीवी लगे और रामराज्य कायम हो जाएगा, भूलना नहीं चाहिए कि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात जैसी कहावतें बच्चों तक को याद हैं।
सुनाई नहीं दी आत्मा की आवाज
पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान निश्चय ही आत्मा की आवाज पर ही किया होगा, लेकिन दोनों जिलों में उनकी आवाज में हुंकारा देने वाले जुटे ही नहीं। पार्टी की मर्यादा ने इन्हें सçर्कट हाउस तक नहीं जाने दिया, लेकिन बातें तो यह भी सुनाई दे रही हैं कि चुनाव के वक्त ही भैरो बाबा को भ्रष्टाचार की याद आ रही है। भ्रष्टाचार मिटे न मिटे लेकिन भैरोंसिंह शेखावत ने जो मुद्दा उठाया है, उसमें दम तो है ही।
फसल के लिए अच्छे बीज की कमी नहीं
हनुमानगढ़ के लिए कई बार आते-जाते जगदंबा मूक-बधिर अंध विद्यालय के भव्य प्रवेशद्वार ने आकर्षित तो किया। अभी जब आश्रम के अवलोकन और स्वामी ब्रrादेवजी से चर्चा में यहां की गतिविधियां समझीं तो लगा कि धर्म के मर्म को तो यहीं कर्म रूप में समझा गया है। धर्म की राह पर आपके इरादे नेक होंगे तो मदद करने वालों की भी कमी नहीं है। ब्रेल प्रेस, प्रिंटिंग यूनिट, मूक-बधिर बच्चों को शिक्षा और इससे पहले अरोड़वंशीय समाज में फैले अंधविश्वास को दूर कर दहाका पर भजन-प्रवचन की शुरुआत। ऐसे सारे काम देख-समझकर तो यही कहा जा सकता है कि धर्म के लिए मर-मिटने वालों को कट्टरता दिखानी ही है तो इस आश्रम जैसे कायोZ में दिखाएं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
Wednesday, 14 January 2009
अंतर कथा एक स्तंभ के हिट होने की

`आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ को आप अजय कुमार सोनी द्वारा तैयार किए ब्लाग http://www.aapnibhasha.blogspot.com/ पर विस्तार से देख सकते हैं।
कायदे और फायदे में उलझी कुर्सी
कुर्सी का खेल भी अजीब है। कहीं कुर्सी अपने नीचे वालों को कायदे सिखा रही है और कहीं कुर्सी के फायदे समझने वाले इससे हर हाल में जुड़े ही रहना चाहते हैं। ताज्जुब तो तब होता है पॉवरफुल अधिकारी यह भूल जाते हैं कि उन्हें इस पॉवर वाली कुर्सी से शहर का भला भी करना है। अब ट्रैफिक पुलिस को ही देखिए साल के 365 दिन में सात दिन मिलते हैं चुस्ती-फुतीü दिखाने के लेकिन गोल बाजार से लेकर सब्जी मंडी, लक्कड़ मंडी तक कहीं लगा ही नहीं भाई लोगों के पेट का पानी हिला भी हो। पता ही नहीं चल पाया कि अस्त-व्यस्त ट्रैफिक में सप्ताह कहां गुम हो गया। हनुमानगढ़ में तो फिर भी टै्रफिक अमले ने अंगड़ाई भी ली, गांधीगिरी भी दिखाई और सप्ताह को गुड बाय कहने के साथ सख्ती के लिए कमर भी कस ली, परंतु यहां तो विभाग ठंड का शिकार हो गया है।
पानी में आग लगाने वाले अधिकारी
बीते सप्ताह बात गन्ना उत्पादकों के आंदोलन से शुरू हुई थी और इस सप्ताह सरकार ने अपनी कुर्सी जमाए रखने के लिए रेवड़ी-मूंगफली के प्रसाद से किसानों का मुंह मीठा कर दिया। कुर्सी को हिलाने के लिए विधानसभा में धरना-नारेबाजी के बाद दोनों जिलों के विधायकों ने अपने क्षेत्रों में आंदोलन के बीज बो दिए हैं। फसलों के लिए पुराने रेगुलेशन से पानी नहीं मिला तो बिना पानी के ही आंदोलन के बीज तेजी से कंटीले झाड़ बन जाएंगे। यदि इतने गतिरोध के बाद भी सरकार को विधायकों की बात माननी पड़े तो सिंचाई विभाग के सीएडी और मुख्य अभियंता से पूछा जाना चाहिए कि आप लोग पानी वाले विभाग के मुखिया होकर आग लगाने की मानसिकता से क्यों काम कर रहे हैं।
आंकड़े बदलते हैं मानसिकता नहीं
कौन कितना और कैसा काम कर रहा है यह तो दोनों कलेक्टरों को विभागीय शाखाओं पर छापामार कारüवाई में पता चल ही गया है। कलेक्टर चाहे पुराने रहें या नए आएं, कर्मचारियों की मानसिकता तो नहीं बदली जा सकती। और ऐसा भी नहीं कि यह छापामारी पहली बार हुई है, बस आंकड़ा कम-ज्यादा होता रहता है। इसमें उन कर्मचारियों को तो मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है जो फील्ड में काम को अंजाम दे रहे होते हैं और धब्बा लगा दिया जाता है गैरहाजिरी का। उन कर्मचारियों को भी अधिक पीड़ा होती है जो समय पर आते और देर से जाते हैं, लेकिन इनमें से भी किसी एक की ही 26 जनवरी पर पीठ थपथपाई जाती है। कम से कम जिले के मुखिया हर माह विभिन्न शाखाओं के श्रेष्ठ कर्मचारियों को सम्मानित कर नई कार्य संस्कृति से आरामपसंद कर्मचारियों को मानसिकता बदलने के अवसर तो दे ही सकते हैं।
अब कुछ करके भी दिखाइए
बात फायदे वाली कुर्सी की करें तो खाली पड़ी परिषद आयुक्त की कुर्सी में राजेंद्र मीणा फिट बैठ गए हैं। वो इतने लंबे समय से इस जिले में हैं कि राजस्थान प्रशासनिक सेवा के बदले बाकी अधिकारी उन्हें श्रीगंगानगर प्रशासनिक सेवा का मानते हैं। अब मीणा को शहर को सुंदर और व्यवस्थित बनाने का फ्री हैंड मिला है। उम्मीद तो है कि कुछ करके दिखाएंगे, वरना तो इसी शहर के लोग कहने से नहीं चूकेंगे- कुर्सी से फायदे में ही उलझे रहे।
प्रधानजी की कुर्सी, विरोधियों का प्रेम
कुर्सी और फायदे का ऐसा ही किस्सा अरोड़वंश समाज ट्रस्ट में भी चल रहा है। प्रधानजी हैं कि अधूरे काम पूरे करने तक कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते हैं, दूसरी तरफ कुर्सी पर नजर गढ़ाए लोग आरोपों की आरी लिए कटाई-çछलाई में जुट गए हैं। आरोप-प्रत्यारोप की स्पर्धा में प्रदेश की प्रमुख संस्थाओं में से एक इस ट्रस्ट की छवि जरूर खराब हो रही है। बुजुगोZ की चिंता है कि बेवजह समाज की बदनामी हो रही है।
मिठास का फिर क्या मतलब
लोहड़ी और मकर संक्रांति पर्व वैसे तो शांति और उल्लास से निपट गए, लेकिन गुरुसर मोडिया से लेकर श्रीगंगानगर तक अहम और अपमान के शोले भड़कने का खतरा टला नहीं है। इसे तभी रोका जा सकता है जब हमें यह समझ हो कि मेरे लिए मेरा धर्म तो महान है ही, लेकिन दूसरे के धर्म को भी मैं उसी महान नजरों से देखूं। मैं जब अपनी बुराई नहीं सुन सकता तो ऐसा कुछ क्यों बोलूं, जिससे बाकी लोगों के दिल दुखें। अदालतों के पेट तो सबूतों के दस्तावेज से भरते रहेंगे, लेकिन धामिüक दरारों को तो माफी के फूलों से पाटा जा सकता है। गुरुओं की बाणी भी तो प्रेम और माफी का ही संदेश देती है, गुरु से बढ़कर तो बंदे हो नही सकते। यदि हमारे समाजों में यह समझ भी पैदा न हो तो गुड़-तिल की मिठास वाले एसएमएस भी कड़वाहट दूर नहीं कर पाएंगे।
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Monday, 12 January 2009
ऊर्जावान टीम में ऐसे फैली `ऊर्जा´

Sunday, 11 January 2009
गंगा स्नान के बाद भी मैल न धुले तो गंगा का क्या दोष?
कीर्ति राणा
महाभारत-रामायण के पात्र किसी न किसी रूप में हर कालखंड में किसी न किसी में जीवित रहते ही हैं। अब राजस्थान में वयोवृद्ध भाजपा नेता भैरोंसिंह शेखावत को ही देखिए, ऐसा लग रहा है कल तक उनमें हस्तिनापुर के लिए प्रतिबद्ध रहने वाले भीष्म की आत्मा थी और आज अचानक उनमें विभीषण जैसा सद्चरित्र पात्र प्रवेश कर गया। झाड़ू हाथ में लिए अब वे अपने ही घर में दुराचरण का कचरा बुहारने को तत्पर हैं। उपराष्ट्रपति रहने से लेकर इस पद से मुक्त होने के बाद आप अपने गृह रा’य राजस्थान आते-जाते रहे। तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधराराजे का आतिथ्य स्वीकारते रहे, राजपाट चलाने का आशीर्वाद देते रहे और अब जब लोकसभा चुनाव नजदीक आने लगे तो रा’य में हुए भ्रष्टाचार को देखने की दिव्य दृष्टि मिल गई और आत्मा ग्लानि से भर उठी।ठीक है उपराष्ट्रपति रहते मर्यादा से बंधे थे, लेकिन बाद में किसने रोक रखा था। विधानसभा चुनाव से पहले तक मौन रहकर ठीक भीष्म की तरह क्यों हस्तिनापुर के गलत फैसलों पर चुप्पी साध रहे। आपके गृह रा’य में पांच साल में `महारानी´ ने इतना कुछ गलत किया तब भी आप नहीं बोले। जिस पार्टी के अटल-आडवाणी की तरह आप भी नींव के पत्थर हैं उस दल की रीति-नीति के मार्गदर्शक पंडित दीनदयाल के नाम पर ट्रस्ट बना, घपले-घोटाले गूंजते रहे लेकिन आप जैसा नेता भी चुप रहे, जिन्हें श्रेय जाता है वसुंधरा को अंगुली पकड़कर राजनीति में लाने का। अब आपको उस वक्त के सही फैसले गलत नजर आ रहे हैं तो इसलिए कि अगले कुछ महीनों में लोकसभा चुनाव होने हैं। आपको ऐसी जमीन तैयार करनी है, जिस पर आप तन कर खडे़ हो सकें। रा’य में भ्रष्टाचार से आपकी आत्मा इतनी विचलित है कि बिना चुनाव लडे़ आप कुछ कर ही नहीं सकते। लोकसभा में जब नोट लहराए गए, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू से लेकर छत्तीसगढ़ के नेता जूदेव तक भ्रष्टाचार वाली सीडी में पार्टी को शर्मशार करते रहे तब भी आप विचलित नहीं हो पाए।गंगा में स्नान के बाद भी मन से लोभ, मोह का मैल न धुल पाए तो इसमें दोष गंगा का नहीं है, पानी चाहे कुएं का हो या गंगा का, नहाते वक्त ध्यान तो हमें ही रखना होगा कि हम मन को समझा रहे हैं या मांज-धोकर पवित्र कर रहे हैं। आखिर कब तक पदों को मोह रहेगा। बड़े नेताओं में? नए चेहरों को आशीर्वाद देने की भूमिका निभाने के लिए सिर्फ अटलजी ही बचे हैं।भ्रष्टाचार के खिलाफ खूब आवाज उठाइए, लेकिन चुनाव लड़ने का मोह जरूरी है क्या? जिन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इंदिरा गांधी की सरकार को आप सबने उखाड़ फेंका था। कम से कम उनसे प्रेरणा लीजिए। जेपी ने कभी नहीं चाहा कि देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए सरकार में पद प्राप्त करें। आप गांधी जी से प्रेरणा लेंगे नहीं क्योंकि तब चाल, चेहरा और चरित्र सब पर नए सिरे से चिंतन करना होगा। जब लोकसभा चुनाव सिर पर हों तो दूसरे के भ्रष्टाचार पर अंगुली उठाकर अपने लिए रास्ता बनाना ’यादा आसान है। वीपीसिंह ने भी तो बोफोर्स का मुद्दा उछाला था और प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद ओवरकोट की जेब से वह कागज ही नहीं निकाल पाए जिसे आम सभाओं में लहराते हुए कहते थे कि इसमें हैं बोफोर्स में दलाली खाने वालों के नाम।भैरोंसिंह जी ने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया, जसवंतसिंह जी ने उन्हें घर खाने पर बुलाया, राजनाथसिंह सफाई देने पहुंच गए यानि भ्रष्टाचार भी अब समाज आधार पर मुखर होने लगा है। राजनाथसिंह उन्हें मनाते वक्त यह भी तो पूछ लेते बाबा यह तो बताओ ये सब अभी ही बोलने की क्या जरूरत थी, अच्छा होता आत्मकथा में लिखते।
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Thursday, 8 January 2009
बूट मार्च निकालना पड़ा तो...आपके जूते कहां हैं?
जूतों का एक जमाना वह था और आज के जमाने में जूते विश्व में छाए हुए हैं। कोई एक जोड़ पुराने जूते के 50 करोड़ भी दे सकता है, सुनकर विश्वास से ज्यादा यह जलन होती है कि काश! मेरे देश में मेरे नहीं सही, किसी और के जूतों की ऐसी किस्मत हो जाए। सेंसेक्स, विश्वव्यापी मंदी और गहराते आतंकवाद पर हावी इस जूता पुराण से मुझे इंदौर के वो दिन याद आ गए जब बक्षी गली के दोनों किनारों पर जूते-चप्पल की दुकानें शाम ढलते ही नंगे पैर लोगों को ललचाती थी।शाम के अंधेरे में यहां से खरीदे जूतों से कई साल मैंने भी दशहरे, दीवाली पर नए जूते वाला शौक पूरा किया है। अंधेरी बूट हाउस नाम रखा हुआ था इन दुकानों का। ढलती शाम में इन दुकानों पर ताजा-ताजा पॉलिश से जूते ऐसे चमकते थे कि नए जूतों वाली दुकान की तरफ देखने की इच्छा दबा लेनी पड़ती थी। काली पॉलिश के थक्के के बाद भी जूते के मुंह के आस-पास लगी बेतरतीब सिलाई बता देती थी कि सस्ते नए कपड़ों के साथ पहने जूते नए नहीं हैं। जूते की लाज ढकने के लिए मैं पैंट और पाजामा कमर से कुछ ज्यादा ही नीचे बांध लेता था ताकि देखने वाले

Wednesday, 7 January 2009
नए साल का उजाला, परेशानियों का अंधेरा...

अगले हप्ते फैरू, खम्मा घणी-सा...