बात बहुत छोटी सी है, लेकिन गहरी है और सीधे हमारी मानसिकता में आते जा रहे बदलाव की तरफ भी इशारा करती है। हुआ यूं कि कार्यालय के एक साथी को किसी जागरुक पाठक ने फोन पर सूचना दी कि पुरानी आबादी में एक मकान के आगे पार्किंग निर्माण में बाधा बन रहे एक पुराने झाड़ को कुछ लोग काटने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें रोकने की कोशिश की, तो वो लोग हमसे झगड़े और तर्क दिया कि अब पुराना हो जाने से झाड़ उतना हरा-भरा भी नहीं है। खैर, प्राप्त सूचना के आधार पर हमने संबंधित एजेंसियों को फोन किया और झाड़ काटने के प्रयास बंद हो गए, पार्किंग के लिए बरामदा भी निर्मित हो गया। उस वृक्ष के बूढे़ शरीर पर कुल्हाड़ी के घाव अब भी हरे हैं। एक तो वैसे ही हमारा जिला भीषण गर्मी के कारण राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों में भी बदनाम है। हालत यह है कि मेरे रिश्तेदार भी इसी गर्मी के कारण अभी तक यहां आने का साहस नहीं जुटा पाए हैं। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए कि पौधे लगाने के लिए खुद लोगों में भावना जागृत हो। अभी निर्जला एकादशी वाले दिन किसी संत महात्मा ने आह्वान नहीं किया, उसके बावजूद श्रीगंगानगर से लेकर हनुमानगढ़ तक के रास्ते, बाजारों, चौराहों पर लोग चिलचिलाती धूप की परवाह किए बिना बसों, कारों, दोपहिया वाहन चालकों को रुकने की मनुहार के साथ ही शरबत पिलाकर शाम तक पुण्य कमाते रहे। हमारे बुजुर्ग कहते हैं, धर्मग्रंथ साक्षी हैं और विज्ञान सिद्ध भी है कि पेड़ हमारे दोस्त व ही नहीं प्राण रक्षक भी हैं। एकांत में खड़े इमली के जिस घनेरे वृक्ष में हम टोटके वाले धागे, तंत्र-मंत्र वाली सामग्री बांध देते हैं। वहां भूत-चुडैल का डेरा है कह कर उस पेड़ को बदनाम करते हैं। इन सारी बुराइयों को गले लगाने के बाद भी वह पेड़ पत्थर मारने पर इमली ही देता है। फिर कोई पेड़ बूढ़ा होने पर बेकार कैसे हो सकता है। पेड़ से बड़ा बलिदानी कहां मिलेगा। आम का वृक्ष खुद आम नहीं खाता, कांटों की पीड़ा के बीच भी गुलाब हमारे लिए मुस्कुराता है। पीपल, बरगद की टहनियों-जटाओं पर उछलकूद करता बचपन देखते-देखते बड़ा हो जाता है। बचपन में जो पेड़ हमारा दोस्त होता है, हमारी समझ बढ़ने पर वहीं हमारे लिए बूढ़ा, बेकार, नाकारा हो जाता है। क्यों याद नहीं रहता कि यही नाकारा पेड़ हमारे साथ खुद को जला कर हमारी आत्मा को अमरत्व प्रदान करता है। जिन लोगों को पेड़ बूढ़ा और बेकार लग सकता है, उन्हें खांसते-कराहते रात काटवाने वाले अपने बुजुर्ग मां-बाप भी पेड़ की तरह बेकार या हेडेक ही लगते होंगे। अब तो गांवों तक भी यह हवा पहुंच गई है। कल तक जिस गाय के दूध-घी से हमारा घर चलता था, बैल-ऊंट वर्षभर की कमाई का सहारा होता था। वह बूढ़ा होते ही बेकार नजर आने लगता है। गांव के किस घर में बच्चा जन्मा, कहां नई बहू आई इसकी जानकारी जैसे अपने स्तर पर वृहन्नलाओं को लग जाती है, वैसे ही कसाइयों को पता चल जाता है किस घर में गाय-बैल बुढ़ा गए हैं। अच्छा है अभी थोड़ी लोकलाज बची है, वरना तो बूढे मवेशियों के साथ बेकार नजर आने वाले बुजुर्गों को भी हम बूचड़खाने का रास्ता दिखाने में न चूकें। वैसे भी शहरों में बढ़ते जा रहे वृद्धाश्रम बहू-बेटों के लिए राहत का रास्ता बनते ही जा रहे हैं।कहने को तो मरा हाथी भी सवा लाख का होता है, लेकिन बूढ़े पेड़, बूढे़ मवेशी और बूढ़े मां-बाप के लिए हमारा नजरिया क्यों नहीं बदलता। एक पेड़ जब आप लगा नहीं सकते तो अपने घर-बरामदे के विस्तार के लिए मोहल्ले के सैंकड़ों बच्चों के बचपन के साक्षी उस बूढे़ वृक्ष पर कुल्हाड़ी से घाव पहुंचाने का अधिकार कैसे मिल गया। मत लगाइए पेड़, लेकिन जो पेड़ आपके मोहल्ले, कॉलोनी में लगे हैं, कम से कम उन्हें सहेज कर तो रखिए। पड़ोसी के आंगन में लगे हर सिंगार के फूल जब आपके बरामदे में झरते हैं या उस कोने वाले मकान में लगे चंपा, रातरानी की खुशबू का झोंका जब बिना अनुमति के आपके घर में फैल जाता है, तब कितना मन खुश हो जाता है। कितने घमंड से कहते हैं, हमारे यहां तक आती है खुशबू। फल वाला नहीं तो छाया और खुशबू वाला एक पौधा आप भी तो लगाइए। सुबह आप जब घूमने जाते हैं, अपने ऑफिस, दुकान जाने के लिए जिस सड़क से आते-जाते हैं, उसके दानों किनारों पर खडे़ कुछ वृक्ष भी मौनी बाबा की तरह आपको देखते रहते हैं। उन पर आप भी नजर डालें और सोचें इन्हें भी तो किसी ने हमारे लिए लगाया था। फिर हम भी तो लगाएं किसी के नाम का एक पौधा। पौधा नहीं लगा सकते तो लगे हुए पेड़-पौधों को बचाने का ही पुण्य कमाएं।
विरासत को सहेजना अपने को विकसित करने जेसा होता हे । पेड़ तो एक बहाना हे । सुंदर बिम्ब के लिये बधाई।
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