Thursday, 28 May 2009
अच्छे की चिंता में हम बन न जाएं खलनायक
तूड़ी में घालमेल
परिणाम तो श्रीगंगानगर कलेक्टर राजीव सिंह ठाकुर ने भी अच्छा ही दिया है। मवेशियों के लिए चारे (तूड़ी) के परिवहन में गंगानगर (राजस्थान) से अबोहर (पंजाब) के बीच चलने वाले घोटाले को उजागर करना इसलिए भी महत्वपूर्ण रहा कि फर्जी बिल, बिल्टी के आधार पर यहां से वहां तक तूड़ी के ट्रक धड़ल्ले से जा रहे थे। वर्षों से चल रहे इस घोटाले को कलेक्टर ने न सिर्फ उजागर किया, अब इसकी तह तक भी जा रहा है जिला प्रशासन। तूड़ी के कारोबार से जुड़े लोग तो नाराज होंगे ही लेकिन बेजुबान मवेशियों के तो हित में ही काम हुआ है।
कागजी जनसेवा
वैसे तो जनसेवा का मतलब ही है काजल की कोठरी से बेदाग निकलना अर्थात सेवा कार्यों में ऐसी पारदर्शिता कि कोई आरोप नहीं लगे, विरोधियों को भी कीचड़ उछालने का मौका नहीं मिले। 1980 में गठित जनसेवा समिति इन 28 वर्षों में भी हनुमानगढ़ में जनाना अस्पताल का निर्माण नहीं करवा सकी तो लोगों को अंगुली उठाने का हक तो मिलेगा ही। जनाना अस्पताल के नाम पर वर्षों से चल रहा घालमेल भी कलेक्टर नवीन जैन की सख्त कार्रवाई से ही उजागर हुआ है। बताते हैं कि इस जनसेवा समिति के पदेन संरक्षक हनुमानगढ़ के कलेक्टर ही होते रहे हैं लेकिन इन 28 वर्षों में कई कलेक्टर आए और चले गए, कार्रवाई का साहस दिखाया तो वर्तमान कलेक्टर ने ही। 28 साल में जनाना अस्पताल बन नहीं पाया और कार्रवाई के 24 घंटों में ही एक करोड़ रुपए जुटा लिए जाएं तो समझा जा सकता है कि समिति से जुड़े सेठ लोग कितने प्रभावी हैं। जाहिर है प्रशासन की इस कार्रवाई का उद्देश्य यही है कि समिति से जुड़े पदाधिकारियों को जनाना अस्पताल निर्माण की सद्बुद्धि मिले। जिले के लोग तो इस कार्रवाई से खुश हैं और मान रहे हैं कि बाकी पड़ी फाइलों की धूल भी झटक जाएगी।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
Wednesday, 20 May 2009
एक कतरा छांव भी तो दान करके देखिए
टीवी पर विज्ञापनों की भीड़ में कूलर के एक विज्ञापन ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है। इसमें कहा जाता है पहले गार्डन में गमले होते थे अब गमलों में ही गार्डन होते हैं। बात सही भी है। 48 के आंकडे़ की ओर दौड़ते पारे में हरियाली विहीन शहर के वो सारे दृश्य घूम गए जब एक कतरा छांव के लिए लोग यहां-वहां तरसते नजर आते हैं। बालकनी और घरों की छतों पर हम गमलों में पौधे लगाते हैं, आंखों को बड़ा सुकून भी मिलता है। हम में पेड़-पौधों की उपयोगिता की समझ भी है, लेकिन यह समझ घरों की चार दिवारी में कैद होती जा रही है। अच्छा हो कि घर के बाहर, सड़क के किनारे भी हम हरियाली की सोचें। इस गर्मी में कूलर और एसी के बाद भी हमें सुकून नहीं मिलता। ऐसे में धधकते मई-जून में राहगीरों और बेजुबान पशुओं के लिए कहां है हरियाली। गर्दन लटकाए छांव की तलाश में यहां-वहां भटकती गाएं पेड़ की आधी-अधूरी छांव में कभी गर्दन तो कभी आड़ी-तिरछी होकर कमर को धूप से बचाने की जुगत में धधकती सड़क के किनारे बैठी नजर आती हैं। जीभ निकाले हांफते कुत्ते छांव के अभाव में नालियों के बीच जैसे-तैसे दोपहर का वक्त काटते हैं। ये बेजुबान तो बता भी नहीं सकते कितनी गर्मी है। परिंदों के लिए दाने-पानी का इंतजाम कर पुण्य कमाने की होड़ तो दोनों जिलों में चल रही है। अच्छे काम की होड़ चलती रहना चाहिए, लेकिन एक ही काम में क्यों, ऐसा ही कुछ पेड़-पौधों को लेकर भी सोचना चाहिए। छायादार पेड़ लगाकर अंजान लोगों के लिए एक कतरा छांव का दान करना हमारे बुजुर्ग तो जानते थे, जाने क्यों हम ऐसे संस्कारों को याद रखना भूलते जा रहे हैं। दोनों जिलों में पर्यावरण प्रेमियों की कमी नहीं है, लेकिन वह स्थिति अब तक तो नजर नहीं आती कि यात्री चूरू से हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर की ओर आने वाली सड़कों के दोनों तरफ सघन हरियाली देखें और मुंह से बरबस निकल पडे़ लगता है हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर शुरू हो गया। अन्य शहरों से आने वालों को हमारी नहरें तो आकर्षित करती हैं, लेकिन हरियाली बिना तो ये नहरें भी अश्रुधारा जैसी ही हैं। दोनों जिलों से हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सालासर, चानणाधाम, खाटूश्याम सहित अन्य धार्मिक क्षेत्रों की पदयात्रा करते हैं। इनके लिए भोजन-पानी का नि:शुल्क इंतजाम करने वालों की होड़ सी लग जाती है। यह भी हो सकता है कि पदयात्रा पर निकलने वाले ये जत्थे सड़क के किनारों पर पौधे लगाते जाएं। ऐसा भी हो सकता है कि लंगर लगाने वाले भी पौधे वितरित करें। दोनों जिलों के वन अधिकारी भी इन पदयात्रियों को मुफ्त पौधे उपलब्ध करा के हरियाली के काम से जोड़ सकते हैं। हम अपने लिए तो सब कुछ कर ही रहे हैं एक पौधा औरों के लिए लगाएं तो सहीं देखिए कितना सुकून मिलेगा। अपने गमले में अपने लिए तो खूब हरियाली कर ली बाकी लोगों को एक कतरा छांव मिल जाए ऐसा भी कुछ करिए। अभी आप जब रोज सुबह छत पर रखे परिंडों में पानी बदलने जाते हैं, तब कैसे खिल उठते हैं चिडिया, तोते और कबूतर को उस परिंड़े में चोंच डुबाए देखकर, मन को कितना अच्छा लगता है। बात हरियाली को लेकर चल रही है तो पिछले दिनों भारतीय खाद्य निगम (हनुमानगढ़ जंक्शन) में पदस्थ नरेश मेहन ने मुझे अपनी कविताओं का संकलन 'पेड़ का दुख' भेजी है। रोजमर्रा की जिंदगी से जुडे़ लगभग सभी विषयों पर इसमें छोटी-छोटी कविताएं हैं। 'पेड़ की चाह' कविता संभवत: आपको भी अच्छी लगेगी-
मैं पेड़ हूँ, सब कुछ देता हूं,
मीठे फल
शुद्ध हवा
ठंडी छांव
और अंत में
सौंप देता हूं
अपना सारा बदन।
बदले में चाहता हूं
मेरे लिए
थोड़ा सा समय
जिसमें रह सको
अमन चैन से
अपने बच्चों और
अपने पड़ोसियों के संग
मेरे साथ।
पुलिस नशे वालों की!
अब तो एनडीपीएस न्यायालय ने भी ठप्पा लगा दिया है कि पुलिस की पुख्ता कार्रवाई के अभाव में नशे के कारोबारी आसानी से छूट जाते हैं। तो मान लेना चाहिए कि हनुमानगढ़ में पुलिस का अमला नशे के कारोबारियों से हाथ मिलाने, वाहन चोरों की पीठ थपथपाने में लगा हुआ है। ये अमला यदि अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए तो कलेक्टर को अभियान चलाने की कमान अपने हाथों में न लेनी पडे़। विश्वास नहीं होता कि पुलिस के बडे़-छोटे अधिकारियों को आराम से नींद आती भी होगी। ईमानदारी की कमाई बरकत लाती है तो बेईमानी की कमाई पूजा घर में रखने से भी पवित्र नहीं होगी। ये आसान सी बात बिगडे़ पुलिसकर्मियों की गृह लक्ष्मियाँ ही उन्हें समझा सकती हैं। यदि वे नहीं समझा रही हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों की फिक्र नहीं है। नशे के कारण जिन लोगों के घर-उजड़ रहे हैं, उनके बीवी-बच्चों की बद्दुआ की पोटली भी तो इस कमाई के साथ घर तक पहुंचती होगी। ये हनुमानगढ़ में ही क्यों होता है कि विशेष न्यायालय में प्रस्तुत ज्यादातर मामलों के आरोपी कमजोर चार्जशीट के अभाव में आजाद हो जाते हैं। पिकअप वाहन चोरी, घरों में चोरी के आरोपी भी नहीं पकड़े जाते और फरियादियों को ही पुलिस आरोपी ढूंढने के काम में लगा देती है।
...पानी का पानी
उन दूधियों की नाक में नकेल डालने का चुनौतीपूर्ण काम हनुमानगढ़ प्रशासन ने अपने हाथ में लिया है, जो जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दूध में फेट के खेल में यूरिया का मेल इस अभियान का कारण है। आम लोग खुश हैं तो इसलिए कि यूरिया मिले न मिले कम से कम पानी वाले दूध की शिकायतों में तो कमी आ ही रही है। जब लोग बिल चुकाने में देरी नहीं करते, तो दूध की कमजोर क्वालिटी में सुधार क्यों नहीं होना चाहिए।
बोए पेड़ बबूल के...
'शोले' के यादगार डॉयलाग में एक डॉयलाग यह भी था- सरदार मैंने आपका नमक खाया है। कुछ वैसे ही स्थिति अवैध बसेमेंट तोड़ने जा रहे अमले की हो रही है। दो साल के दौरान अनुमति तो दी नहीं फिर भी बेसमेंट बनते गए, उन इलाकों के दारोगा से लेकर बडे़ अधिकारियों को भी इसकी कुछ तो जानकारी थी ही। अब जब मजबूरी में इन्हें तोड़ने जाना पड़ रहा है तो अपमानित भी होना पड़ रहा है-यानी माल खाया है तो मार भी खानी पडे़गी।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
Thursday, 14 May 2009
एक बेटी आंखों का तारा, दूसरी हुई बेसहारा
अंकल मैं पहली बार वोट डालूंगी, मेरे विचार और फोटो देना है आप प्रिंट करेंगे।मैंने कहा क्यों नहीं हमने तो अभियान ही चला रखा है।अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूल से 12वीं की परीक्षा दे चुकी उस छात्रा ने टूटी-फूटी हिंदी में अपने विचार लिख कर दिए।अंग्रेजी माध्यम वाले स्टूडेंट की हिंदी हैंड राइटिंग अच्छी हो यह जरूरी भी नहीं लेकिन हिंदी में विचारों को भी ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सके तो यह चिंतनीय है। हिंदी, उर्दू , गुरुमुखी और अंग्रेजी के जानकार दादाजी जरूर उसे हिंदी ठीक से लिखने में मदद कर रहे थे। एक पैराग्राफ लिखने में उसे कम से कम दस मिनट लगे और सकुचाते हुए उसने अपना लिखा कागज मुझे थमाया। मात्र 8-10 लाइनों में इतनी गलतियां थी कि मेरी नजर शरमा गई। मैंने पढ़कर उसकी तरफ देखा, आंखों के भाव से वह भी समझ गई थी अंकल जो कहना चाहते हैं वह कह नहीं रहे हैं। लिहाजा उसने ही सकुचाते हुए कहा अंकल वो क्या है कि मेरी हिंदी ठीक नहीं है, सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है, प्लीज आप ठीक कर लीजिएगा। दादा चार भाष्ााओं के जानकार, मां खुद टीचर, कारोबारी पिता को भी व्यावहारिक दुनिया की जानकारी और स्कूल में टॉप रहने वाली बेटी का हिंदी के मामले में ये हाल। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले सारे स्टूडेंट्स ऐसे नहीं होगे- मैं उसी दिन से अपने मन को समझा जरूर रहा हूं लेकिन दिल है कि मानता नहीं। वैसे हिंदी माध्यम वाले स्कूल के छात्रों के हाल भी बहुत अच्छे नहीं हैं। अंग्रेजी लिखना और बोलना आना कांपिटिशन के इस जमाने में बेहद जरूरी है, लेकिन विश्व को दशमलव देने वाले भारत के ही कांवेंट कल्चर वाले बच्चे हिंदी में लिखे 17 या 56 को अंग्रेजी में बताने के लिए कहते हैं और तब उनके चेहरे पर विजयी भाव नजर आता है- अरे यह तो सेवंटीन, फिफ्टी सिक्स है। इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों में अंग्रेजी सिखाने में टीचर खूब मेहनत करते हैं। जहां तक राजकीय स्कूलों में हिंदी में होने वाली पढ़ाई का सवाल है तो हिंदी की दुर्गति यहां भी कम नहीं है। हिंदी के शिक्षक हिंदी के नाम पर तनख्वाह लेते-लेते समारोहपूर्वक सेवानिवृत हो जाते हैं लेकिन यह फिर भी नहीं जानते कि हिंदी में बिंदी कहां लगेगी।अपने बच्चों की हिंदी सुधारने के लिए पेरेंट्स इतना तो कर ही सकते हैं कि उनसे उनकी रुचि के विषयों वाली हिंदी की किताब से एक पेज की रोज नकल करवाएं। कितना अजीब है कि ये बच्चे हिंदी लिखना तो नहीं जानते लेकिन हिंदी फिल्में, टीवी सीरियल में दिलचस्पी रखते हैं। नेट पर चेटिंग के लिए हिंदी की दिक्कतों को रोमन अंग्रेजी ने आसान जरूर कर दिया है फिर भी हिंदी में लिखने, सोचने, व्यक्त करने की बात ही अलग है। रोमन अंग्रेजी वाली हिंदी तो बिना जड़ वाले पेड़ के समान ही है। दो बहनों में एक खूब श्वेतवर्ण और दूसरी श्यामवर्ण हो तो जाहिर है गोरी सब को आकर्षित करेगी लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि श्यामवर्णी को स्लो पायजन दे दिया जाए। भारत माता के मस्तक की बिंदी का गौरव पाने वाली हिंदी की हालत श्यामवर्णी बहन जैसी ही होती जा रही है।
मैरिज पैलेस संचालकों के खिलाफ अभियान तो पहले भी चले हैं अब देखना है इस बार कुछ राहत तक बात पहुंचेगी या नहीं। ऐसे अभियान जब भी चलते हैं पैलेस के आसपास रहने वाले जाने कितनी उम्मीदें बांध लेते हैं प्रशासन से, क्योंकि शादियों के सीजन में सर्वाधिक परेशान ये लोग होते हैं। देर रात तक शोर-शराबा और दूसरे दिन जूठन और नालियों में डिस्पोजल के ढेर से रुकता बहाव और उठती दुर्गन्ध से सांस लेना दूभर हो जाता है। बारिश के दिनों में इंदिरा वाटिका क्षेत्र की कॉलोनियों में घुटने-घुटने पानी के हालात में थोड़ा बहुत सहयोग तो पैलेस संचालकों की अनदेखी का भी है ही। पैलेस तो बंद हो नहीं सकते, शादियां भी होती ही रहेंगी लेकिन प्रशासन ने जब सुधार के लिए कमर कस ही ली है तो इतना तो हो ही जाए कि आसपास रहने वालों को स्थायी रूप से राहत मिले। पैलेस संचालक अपनी खामियां दूर करने को तत्पर भी हैं बशर्ते संबंधित विभाग सहयोग करें। जिन थाना क्षेत्रों में मैरिज पैलेस हैं वहां के एसएचओ, स्टाफ की क्षेत्र के रहवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। अभी तो पैलेस संचालकों के साथ इनकी मिले सुर मेरा तुम्हारा जैसी स्थिति है।