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Thursday, 10 February 2011

अभी नहीं तो कभी नहीं

हम एक साथ कई कामों को करने की सोचते हैं जो काम नहीं कर पाते उसके लिए बड़ा सहज कारण भी तलाश लेते हैं कि वक्त ही नहीं मिलता। इसी कारण कई कामों को कल पर टाल देते हैं वक्त की नदी कल-कल करती बहती रहती है और कल के लिए छोड़ गए काम तब हमारे लिए पहाड़ से हो जाते हैं जब हमारे पास वक्त तो होता है, लेकिन उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर उन छोड़े गए कामों की गठरी खोलने जितनी ताकत भी नहीं होती हाथों में।
मीडिया से जुड़े मेरे एक अजीज दोस्त से फोन पर बात हो रही थी। फ्यूचर की अपनी प्लानिंग बताते हुए उन्होंने कहा दो किताबें लिखना है, दिमाग में खाका तैयार है। तो कब से काम शुरू कर रहे हैं, यह मान कर चलें कि इसी साल में ये किताबें पूरी हो जाएंगी। मेरी इस जिज्ञासा पर मित्र का जवाब था बस थोड़ा वक्त मिल जाए। मैने उन्हें याद दिलाया कि आज से करीब तीन महीने पहले भी आप ने इसी उत्साह से एक किताब की भूमिका बताई थी, इसका मतलब यह कि वह किताब प्रिंट होने के लिए दे दी है? उन्होंने कहा अरे नहीं यार, उस किताब का काम भी रुका पड़ा है। एक चेप्टर भी नही हो पाया। बस थोड़ा वक्त की प्रॉब्लम है, समय मिलते ही सबसे पहले उसी किताब का काम शुरू करूंगा। फिर वे खुद ही अपने उन मित्रों के नाम गिनाने लगे जिन्होंने अपने मन पसंद सब्जेक्ट पर एक से अधिक किताबें लिख डाली है और इन किताबों के कारण उनकी अलग पहचान भी बनी है। मुझे लगता है यह मेरे मित्र की ही नहीं हम सब की प्रॉब्लम है। हमें जो काम करना होता है बस उसी के लिए वक्त नहीं मिलता बाकी सब कामों के लिए वक्त मिल जाता है। घर से निकलते वक्त टेलीफोन, बिजली का बिल तो लेकर निकलते हंै, लेकिन जमा कराने का वक्त नहीं मिलता। नतीजा यह कि हम में से ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है कि लेट फी के साथ ही बिल जमा कराते हैं, देरी से बिल जमा कराने के लिए जाने कहां से वक्त मिल जाता है। आयकर विभाग महीनों पहले रिटर्न दाखिल करने की अंतिम तारीख घोषित कर देता है लेकिन हमारी चेतना अंतिम तारीख वाले दिन ही जाग्रत होती है। इसके ठीक विपरीत फ्लाइट का टिकट पहले से बुक करा रखा हो, ट्रैन या फिल्म का टिकट करा रखा हो तो इन सारी जगहों पर हम यह नहीं करते कि वक्त मिलने पर चले जाएंगे। यहां तो हम बाकी काम निपटा कर समय से दस मिनट पहले ही पहुंचने की कोशिश करते हैं। चौबीस घंटे बाद अगले दिन का सूर्योदय होना ही है यह हमें पता है। किसी दिन ऐसा नहीं हुआ कि सूरज इसलिए नहीं निकला हो कि उसे वक्त ही नहीं मिला। ना ही कभी ऐसा हुआ कि चांद इसलिए सुबह देर तक चांदनी बिखेरता रहा कि उसे अस्त होने का वक्त ही नहीं मिला। कभी ऐसा हुआ क्या कि पतझड़ के मौसम में चार महीने बारिश होती रही हो या ठंड के मौसम में लगातार महीनों तक तेज गर्मी पड़ती रही हो। प्रकृति में होने वाले बदलाव के महीने तय हैं। शुक्लपक्ष में चांद महीने से शुरू होकर पूर्णिमा को ही पूर्णाकार नजर आएगा। सब के काम तय हैं और वक्त भी निर्धारित है, कभी प्रकृति को ना वक्त कम पडऩे की शिकायत करते सुना और न ही यह सुनने में आया कि पूर्णिमा पर दूज जैसा चांद इसलिए दिखा कि उसे पूरा निखरने का वक्त ही नहीं मिल पाया।
आखिर हमें ही क्यों वक्त कम पड़ जाता है या जो काम जब कर लेना हो उसके लिए बस उसी वक्त हमें समय नहीं मिल पाता। जो काम हम आज जितने अधिक उत्साह से कर सकते हैं जरूरी नही कि दस-बीस साल बाद भी उतनी ही स्फूर्ति से कर पाए। हम सपने तो देखना जानते हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने की प्लानिंंग नहीं कर पाते लिहाजा हमारे पास वक्त ही नहीं होता। पढ़ते तो बचपन से रहे हैं 'काल करे सो आज करÓ लेकिन इस का मतलब उम्र के अंतिम पड़ाव पर तब पता चलता है जब हमारे पास वक्त तो खूब होता है लेकिन खुद के बलबूते चार कदम चलने जितनी ताकत भी नहीं रहती। कितना मशीनी जीवन है हमारा पैसा कमाने के चक्कर में सपने पूरे करने का वक्त नहीं और जब वक्त होता है तब लम्बे समय से कल पर टाले गए सपने पूरे करने का हौसला नही रह पाता। जबकि हमारे आसपास ही ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो समय को हर दिन के अपने कामों के हिसाब से बांट कर तय समय में उस काम को पूरा कर ही लेते हैं। हमारी ही तरह ऐसे लोगों को भी वही चौबीस घंटे ही मिलते है। वक्त तो सबको समान ही मिलता है और अवसर सब के दरवाजे पर दस्तक भी देते हैं जो दरवाजा खोल कर अवसरों का स्वागत करते हैं वक्त उनके कदमों में लिपट जाता है और जब हम वक्त की रफ्तार के मुताबिक चल नहीं पाते तो गुजर गए कारवे के बाद उड़ती हुई धूल को निहारते हुए हाथ मलने से ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाते। तब हालात बिल्कुल ऐसे ही हो जाते हैं कि तेज भूख लगे, जेब बादाम-अखरोट सहित बाकी ड्रायफू्रट भी भरे हो लेकिन चबाने के लिए दांत ही नहीं हो।

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