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Thursday, 26 August 2010

हम सफर के अच्छे यात्री ही बन जाएं

ट्रेन का सफर हम सभी ने किया है और करते रहते हैं। यह सफर हमारे लिए जिंदगी की पाठशाला से कम नहीं होता पर हम कहां सीख पाते हैं। ट्रेन के सफर में हमारा जो व्यवहार रहता है वैसे हम सामान्य जीवन में नहीं रहते। जबकि हम सब एक तरह से नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस में सफर कर रहे हैं। हम सबका टिकट पहले से कट चुका है, सीट भी रिजर्व है और मंजिल तो हम सब को पता है ही। इस सब के बाद भी हम एक अच्छे यात्री नहीं बन पाते कि बाद में लोग हमें याद रखें। हमें तो यह भी चिंता नहीं कि जब हम सफर पर निकलेंगे तब हमें विदा करने चार लोग भी जुटेंगे या नहीं।
ठसाठस भरी ट्रेन में पैर रखने जैसी हालत भी नहीं थी। अगले स्टेशन पर जितने लोग उतरते उनसे अधिक संख्या चढऩे वालों की थी। फिर भी हर कोई इस विश्वास के साथ डिब्बे में चला आ रहा था कि भीड़ है तो क्या अपना सफर तो अच्छा रहेगा। मुझे भी ट्रेन का सफर अच्छा लगता है। मेरा तो मानना है जिंदगी की पाठशाला के कई पीरियड का ज्ञान एक टिकट का मूल्य चुका कर प्राप्त किया जा सकता है।
जाने वाला एक होता है लेकिन छोडऩे वाले एकाधिक। आंखों से टपकने को आतुर आंसुओं को पलकों में ही रोक कर मुस्कुराते हुए बातचीत करते रहने के दृश्य प्लेटफार्म के अलावा आसानी से और कहीं देखने को नहीं मिलते। इस सफर में ही यह सत्य भी छुपा होता है कि जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही है। जाने वाले को भी पता होता है कि जो छोडऩे आते हैं वो साथ नहीं जाते। ट्रेन रवानगी के बाद जो घर की ओर कदम बढ़ाते हैं तो वो सब भी मान कर चलते हैं कि जब हम जाएंगे तो लोग हमें भी इसी तरह छोडऩे आएंगे।
जिंदगी और मौत के बीच भी तो ट्रेन के सफर जैसे ही हालात रहते हैं। हम सब के अंतिम सफर के टिकट पहले से ही रिजर्व हैं। हमें भले ही पता न हो लेकिन ट्रेन को सब पता है कब, किसे लेने जाना है। जब बहुत तबीयत बिगडऩे और डॉक्टरों के जवाब देने के बाद भी किसी चमत्कार की तरह बोनस लाइफ मिल जाए तो मान लेना चाहिए कि आरएसी की वेटिंग लिस्ट में नंबर था और उस स्वीकृत सूची में हमारा नंबर ऐन वक्त पर आते आते रह गया।
सफर चाहे ट्रेन का हो या जिंदगी का, यह हंसते खेलते तभी कट सकता है जब हम सब के साथ एडजस्ट होकर चलें। हम ट्रेन में किए पिछले किसी लंबे सफर को याद करें तो आश्चर्य भी हो सकता है कि जवान होते बच्चों की शादी के लिए कोई ठीकठाक रिश्ता दिखाने का आग्रह, कारोबारी मित्रता या वर्षों बाद अपने किसी स्कूली दोस्त के समाचार तो हमें पड़ोस की सीट पर बैठे उस यात्री से ही मिले थे जिसे हम ट्रेन चलने के पहले तक पहचानते तक नहीं थे। किसी के टिफिन से सब्जी लेना और बदले में अपने शहर की फेमस नमकीन और मिठाई खिलाने जैसे आत्मीय पल लंबे और उबाऊ सफर में भी रंग भर देते हैं। तंबाकू और ताश के पत्तों से शुरू हुई बातचीत मंजिल आने तक इतनी गहरी मित्रता में बदल जाती है कि एड्रेस का आदान-प्रदान याद से घर आने के अनुरोध के साथ खत्म जरूर हो जाता है लेकिन अपनों के बीच पहुंच कर हम कुछ घंटों के उस सहयात्री के किस्से सुनाते रहते हैं।
अब जरा इस ट्रेन के सफर को हम अपनी रोज की जिंदगी के साथ देखें। सफर तो हम रोज कर रहे हैं। दिन, महीनों और सालों वाले स्टेशनों पर बिना रुके नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस दौड़ती जा रही है। ट्रेन में तो हम फिर भी बिना किसी स्वार्थ के अपनी लोअर बर्थ जरा से अनुरोध पर अन्य यात्री के लिए खाली कर के उसकी अपर बर्थ पर खुद को एडजस्ट कर लेते थे लेकिन जीवन के सफर में हमें न तो अपनों की परेशानी नजर आती है और न ही हम में एडजस्ट करने का भाव पैदा होता है। हम इस सफर में अपने में ही मस्त हैं। हम न तो किसी के यादगार सहयात्री साबित होना चाहते हैं और न ही अपने आसपास के सहयात्री से कुछ अच्छा सीखना चाहते।
किसी वक्त जब कभी हमें कुछ फुर्सत मिले तो अकेले में चिन्तन जरूर करना चाहिए कि हमारा अब तक का सफर कैसा रहा। क्या हमने ट्रेन के डिब्बे में कुछ ऐसा किया कि बाकी लोग हमें एक अच्छे यात्री के रूप में याद रखें। हमने कुछ ऐसा भी किया या नहीं कि लोग हमें किस्सों में याद करें। सामान्य जिंदगी तो सभी बिताते हैं लेकिन हमने इस समाज का ऋण उतारने की दिशा में कुछ किया भी या नहीं। हम सब को टिकट तो उसी गाड़ी का मिला है जो किसी को जल्दी तो किसी को कुछ देर से तय स्टेशन पर ही ले जाएगी। टिकट सही होने के बाद भी यदि हम गलत गाड़ी में बैठ कर इस जीवन को सार्थक की अपेक्षा निरर्थक बनाएंगे तो इसमें न स्टेशन मास्टर का दोष होगा न सहयात्रियों का और न पटरियों का। हमें कुछ लोग स्टेशन पर छोडऩे तभी आएंगे, जब हम किसी की परेशानियों में साथ खड़े होने का वक्त निकाल पाएंगे। वरना तो आज घर से श्मशानघाट तक शवयात्रा को कंधा देने वाले भी कम पड़ जाते हैं। हर कोई सीधे श्मशानस्थल के मेनगेट पर पांच मिनट पहले पहुंचने के शार्टकट अपनाने लगा है।

Thursday, 19 August 2010

मोबाइल पर आप आवाज से पहचान लेते हैं बात करने वालों को

हम में से ज्यादातर लोग अपनी सुविधा से फोन करना तो जानते हैं लेकिन जिसे फोन किया है उसकी परेशानी नहीं समझना चाहते। हम तो यही मानकर चलते हैं कि सारा जमाना हमारा नंबर जानता ही होगा, हम बात शुरू करने से पहले न तो अपना नाम बताने की जहमत उठाते हैं और न ही एसएमएस करते वक्त अपना नाम, पहचान आदि लिखना याद रखते हैं। जब कोई हमें भूल सुधार का सुझाव देता भी है तो इस तरह की गलतियों को स्वीकारना भी नहीं चाहते। आत्मीय संबंधों का पौधा एक तो पहले ही बोंसाई किस्म का होता है और हमारी छोटी छोटी भूल के कारण यह पौधा सूख कर कांटा हो जाता है। हम खुद ही कांटों वाली फसल तैयार करते हैँ और बाकी सारी जिंदगी इन कांटों की चुभन के साथ ही गुजारते रहते हैं।
फोन की घंटी बजी, मैंने फोन उठाया। दूसरी तरफ से हैलो की आवाज के साथ ही चुनौती भरे स्वर में पूछा गया बताइये कौन बोल रहे हैं। दिमाग पर काफी जोर डाला, लेकिन आवाज नहीं पहचान पाया। मैंने हथियार डालने के साथ ही बात संभालते हुए कहा दरअसल आप हैं तो मेरे बहुत नजदीकी लेकिन शायद मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है इसीलिए आप का नाम याद नहीं आ रहा है, आवाज तो पहचानी सी ही है।
मैंने सोचा अब तो उधर से नाम बता ही दिया जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। अब दूसरा सवाल दागा गया, अभी आपको हैप्पी इंडिपेंडेंस-डे का मैसेज भी किया था। मैंने फिर बात संभालने की कोशिश की अरे हां, आपका मैसैज मिला तो था, मैं किसी को जवाब नहीं दे पाया इसलिए आप को भी जवाब देना रह गया।
अब उधर से उलाहने और नाराजी भरे स्वर में कहा गया हां, भई अब आप हमारे एसएमएस का जवाब क्यों देंगे। हम कोई वीआईपी तो हैं नहीं। मैंने कई तरह से उन्हें समझाने की कोशिश की, अंत में लगभग माफी मांगते हुए उनका नाम पूछ लिया। उन्होंने बड़े गुरूर के साथ अपना नाम बताया। अब मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने के साथ ही उनसे पूछा एसएमएस में आपने अपना नाम लिखा था क्या। उन्होंने उल्टे मुझसे ही प्रश्न किया आप को मेरा नंबर भी याद नहीं है क्या। मैंने समझाने की कोशिश की मोबाइलसेट चैंज करने, मोबाइल मैमोरी कार्ड हो जाने, नंबर चैंज होने जैसे कई कारण हो सकते हैं। सारे कारण, माफी की पहल भी बेअसर होती नजर आई तो मैंने अंत में उस दोस्त को कह ही दिया अच्छा होता तुमने एसएमएस में अपना नाम लिखा होता। रही बात फोन पर आवाज पहचानने की तो वह सुविधा मेरे फोन में नहीं है। जाहिर है मेरे इस रूखे जबाव के बाद बात एक झटके में खत्म हो गई।
मोबाइल से हमें जितनी सुविधाएं मिली हैं, उतनी ही दुविधा भी बढ़ गई है। जब लैंड लाइन फोन पर निर्भरता थी या जब शुरूआती दौर में मोबाइल पर कॉल रेट आठ रुपए प्रति मिनट होता था तब फोन पर 'पैचान कौनÓ स्टाइल में कोई भी देर तक बात नहीं करता था और लंबी बात की स्थिति में घड़ी पर बार बार नजर जरूर जाती थी। जब से बात करना सस्ता या एक ही ग्रुप नंबरों पर फ्री कॉल जैसा होता जा रहा है, अचार के लिए मसाले से लेकर आज कौन सी ड्रेस पहनी जाए ये सारे गंभीर डिसीजन लेने में फोन पर हमने कितनी लंबी चर्चा की इसका तो पता ही नहीं चलता।
हम में से ज्यादातर को आए दिन अपने लोगों के इस तरह के उलाहनों का सामना करना ही पड़ता है। लोग फोन पर अपना गुस्सा निकालना तो जानते हैं लेकिन यह याद नहीं रखते कि फोन पर बात करने के भी कुछ मैनर्स होते हैं। जिसे हम फोन या एसएमएस करते हैं वह चाहे जितना हमारा प्रिय क्यों न हो हमें यह याद नहीं रहता कि एसएमएस करते वक्त साथ में अपना नाम, शहर या अपनी कोई पहचान है तो वह भी लिखते हैं या नहीं। अब सिर्फ नाम लिखना तो कतई पर्याप्त नहीं क्योंकि एक ही शहर में एक जैसे नाम वाले कई मित्र रहते ही हैं। इन सब नामों क ी पहचान में गड़बड़ी न हो इसीलिए हम सब को अलग-अलग तरीके से पहचानते हैं। फिर एसएमएस या फोन पर बात करते वक्त इन बातों का ध्यान क्यों नहीं रखते। जब हम यह अनिवार्य सजगता बरतना नहीं जानते तो फिर इस बात को भी प्रेस्टीज पॉइंट नहीं बनाना चाहिए कि सिर्फ आवाज से किसी ने आप को फोन पर क्यों नहीं पहचाना।
हम अपनी सुविधा से फोन लगाते हैं लेकिन यह ध्यान नहीं रखते कि जिसे फोन लगाया है वह भी उस वक्त बात करने की स्थिति में है भी या नहीं। हम फोन पर बात शुरू करने से पहले इतना पूछना भी जरूरी नहीं समझते कि मुझे आप से कुछ चर्चा करनी है, आप के पास अभी वक्त है या थोड़ी देर से फोन लगाऊं। हम तो अधिकार पूर्वक नंबर डायल करने के साथ ही यह मान कर चलते हैं कि सामने वाला जैसे हमारे फोन का इंतजार ही कर रहा है। बिना अपना नाम बताए सीधे अपने काम की बात शुरू करने में हमें संकोच नहीं होता। फिर न तो हम वक्त का ख्याल रखते हैं और न ही सामने वाले की परेशानी को जानने की कोशिश करते हैं।
जो लोग सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े होते हैं फिर चाहे वह क्षेत्र राजनीति, संचार, वकालत, चिकित्सा, प्रशासनिक आदि ही क्यों न हो हम तो यह मानकर चलते हैं कि इन्हें यदि हमने फोन लगाया है तो बस हमारी समस्या तो हाथों हाथ हल होना ही चाहिए।
हम तो अपने काम, अपनी समस्या के त्वरित निदान को लेकर इतने स्वार्थी हो गए हैं कि विवाह समारोह में भोजन कर रहे परिचित डॉक्टर को रात से हो रहे लूज मोशन की डिटेल बताने के साथ हाथों-हाथ दवा-गोली पूछ लेने में भी हमें हिचक महसूस नहीं होती। वकील से हम श्मशानघाट में भी अपने किसी विवाद को लेकर सलाह लेने में संकोच नहीं करते। ऐसे में यदि संबंधित पक्ष से मनोनुकूल जवाब न मिले तो दूसरे ही पल हम बुराइयों का इतिहास खोल कर बैठ जाते हैं फिर हमें इस एक काम के न हो पाने के गुस्से में इससे पहले कराए गए अन्य दस कामों की याद भी नहीं रहती। हमारी इन छोटी-छोटी गलतियों के कारण वर्षों में हरा हुआ आत्मीय संबंधों का पौधा पल भर में सूख जाता है। इसके सूखने का कारण भी हम पड़ोसी के घर के कारण धूप न मिलना बता देते हैं पर यह नहीं स्वीकार पाते कि हमने भी इस गमले को बालकनी में रखने के प्रयास नहीं किए।

Wednesday, 11 August 2010

मन को भार से मुक्त करने के लिए है तो सही आभार

हम आभार व्यक्त करना सीख लें तो मन से कई तरह के भार उतर सकते हैं। घर और स्कूल से हमें ऐसे सारे संस्कार मिलते तो हैं लेकिन हम शत-प्रतिशत पालन तो कर नहीं पाते उल्टे बड़े होने पर खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकते। ईश्वरीय सत्ता को हम सहजता से स्वीकार नहीं पाते लेकिन यह आसानी से मान लेते हैं कि कोई शक्ति है तो सही। बड़ा खतरा टल जाए तो इसी अदृश्य शक्ति को याद करते हैं लेकिन चौबीस घंटे आराम से बीत जाने पर हम उस शक्ति का आभार व्यक्त करना भूल जाते हैं। पांच मिनट की इस प्रार्थना से हमारे अगले चौबीस घंटे आराम से गुजर सकते हैं।
अभी कुछ दोस्तों के साथ एक समारोह में भाग लिया। रात अधिक हो जाने के कारण आयोजकों ने सबके रुकने की व्यवस्था भी फटाफट कर दी। देर तक गप्पे लगाने के बाद सभी दोस्तों ने सोने की तैयारी करते हुए लाइट ऑफ करने के साथ ही कंबल खींचा और एक दूसरे से गुडनाइट कर ली। बाकी दोस्त तो आंखें मूंद चुके थे। कुछ के खर्राटे भी शुरू हो गए थे।
गुडनाइट कर चुका एक दोस्त फिर भी जाग रहा था, पलंग पर आंखें बंद किए बैठा था और मन ही मन कु छ बुदबुदा रहा था। पहले मैंने सोचा उससे इस संबंध में पूछ लूं। फिर ध्यान आया कि हमारी बातचीत से बाकी लोगों की नींद में खलल पड़ सकता है, लिहाजा तय किया कि सुबह बात करूं गा। सुबह नाश्ते पर फिर सारे दोस्त एक साथ मिले। मैंने उस दोस्त से पूछा रात में किसे याद कर रहा था।
उसने बताया कि बचपन से यह आदत है कि सोने से पहले बीते 24 घंटों के लिए भगवान के प्रति आभार व्यक्त करता हंू कि आपकी कृपा से आज का दिन मेरे लिए आपका दिया अनमोल उपहार साबित हुआ। इसके साथ ही अपने परिजनों, रिश्तेदारों, और उनके रिश्तेदारों तथा इन सब के चिर परिचितों की बेहतरी के लिए प्रार्थना करने के साथ ही यदि हमारे कोई दुश्मन हैं तो उनके मन में कटुता के बदले करुणा के भाव पैदा करने की कामना करता हूं। चौबीस घंटों के दौरान अंजाने में मेरे किसी कार्य, किसी बात से किसी का दिल दुखा हो तो उसके लिए क्षमा भी मांगता हूं।
जाहिर है कि कुछ दोस्तों ने उसका मजाक उड़ाया तो कुछ ने सवाल किया कि जो हमारे दुश्मन हैं उनक ी बेहतरी की कामना करना तो पागलपन है। उसने कुछ प्रश्नों के जवाब दिए, कुछ मामलों में निरुत्तर हो गया। नाश्ता खत्म होने के साथ ही चर्चा भी खत्म हो गई। साथी लोग सामान समेटने के साथ ही रवानगी की तैयार में लग गए। जिनका ईश्वर नाम की सत्ता में विश्वास नहीं है उनके लिए इस तरह की प्रार्थना पागलपन हो सकती है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं वे भी इसे मेरा धर्म, तेरा धर्म की नजर से देखने के साथ ही अपने तरीके से समीक्षा भी कर सकते हैं।
मुझे अपने उस मित्र की इस आदत में जो अच्छी बात लगी वह है आभार का भाव। ईश्वर किसी ने देखा नहीं, प्रकृति के रूप में मिली सौगात को भी कई लोग ईश्वरीय उपहार मानने में संकोच करते हैं। पर यह भी तो सच है कि प्रकृति की ही तरह घर, परिवार, समाज के लोग बिना किसी स्वार्थ के हमारे काम आते हैं। आपस की चर्चा में हम ऐसे मददगारों को ईश्वर के समान मानने में संकोच नहीं करते। ऐसे मददगारों का ही हम आभार व्यक्त करना याद नहीं रखते तो हर रात सोने से पहले उस सर्वशक्तिमान क ा आस्था के साथ आभार व्यक्त करना तो दूर की बात है। दोस्त से हुई चर्चा के बाद से मैंने तो सोने से पहले का अपना यह नियमित क्रम बना लिया है। बाकी लाभ मिले न मिले दिन भर के तनाव से इस पांच मिनट की प्रार्थना का इतना फायदा तो है कि नींद बड़े सुकून से आती है। जो हमारे काम आएं, हम यदि उनका अहसान नहीं भी उतार पाएं तो आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं, ऐसा करने पर हम छोटे तो नहीं होंगे लेकिन सामने वाले की नजर में बड़े जरूर हो जाएंगे। हममें आभार व्यक्त करने के संस्कार हैं तो फिर प्रकृति और उस अंजान शक्ति के प्रति श्रद्धा और आभार भाव रखने में भी हर्ज नहीं होना चाहिए। कहा भी तो है जब हम किसी के लिए प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर उन लोगों पर अपनी कृपा करता है। जब हम सुखी और प्रसन्न हों तो यह कतई न मानें कि यह हमारी प्रार्थना का फल है। यह मानकर चलें कि किसी ने हमारे लिए भी प्रार्थना की है। अपशब्दों में यदि हमें आगबबूला करने की ताकत है तो आभार या प्रार्थना के भाव में मन को निर्मल, भारमुक्त करने का जादू क्यों नहीं हो सकता।

Thursday, 5 August 2010

बुराई छोडऩे के लिए कल का इंतजार क्यों

कोई बुराई कब हमारी आदत और फिर लत बन जाती है हमें पता नहीं चलता। अफसोस तब होता है जब परिवार और समाज में इसके कारण हमारी फजीहत होने लगती है। बुराई से दोस्ती में अंधेरा मददगार होता है और बुराइयों के अंधेरे से बाहर लाने के लिए दिन का उजाला फें्रडशिप निभाता है। बुराई से जब मुक्ति के लिए मन छटपटाने लगे तो कल नहीं तत्काल निर्णय का साहस दिखाएं। बुराई अपनाई जाती है चोरी-छुपे लेकिन जब उसे छोड़ें तो खूब प्रचार करें। ऐसा करने पर आसपास के लोग सख्त नजर रखेंगे, ये सारे पहरेदार ही आपके संकल्प की सफलता में सहायक बनेंगे।
जब भी सारे मित्र होटल में लंच या डिनर का प्रोग्राम बनाते इन्हीं में से एक मित्र आदत के मुताबिक नॉनवेज का आर्डर देना नहीं भूलते थे। अभी जब हम सब लंच के लिए मिलें तो उन्होंने मीनू कार्ड हाथ में लेने के साथ ही अपने लिए शाकाहारी डिश का ऑर्डर नोट कराया। बाकी मित्र हैरत में थे, उनसे कारण पूछें, इससे पहले खुद उन्होंने ही घोषणा भरे लहजे में कहा मैंने नॉनवेज छोड़ दिया है। बात यही खत्म नहीं हुई, वे सभी मित्रों के पास गए और सभी को व्यक्तिगत रूप से अपनी यह आदत छोडऩे की उत्साह के साथ जानकारी दी।
मित्रों ने आश्चर्य व्यक्त करने के साथ बधाई तो दी, साथ ही शंका जाहिर की कि अपने इस संकल्प पर अमल सख्ती से कर सकोगे? उनका जवाब भी अनूठा था, एक सप्ताह से तो अपने संकल्प पर डटे रहने में कोई दिक्कत नहीं आई। कभी, किसी मोड़ पर डगमगाने लगूं तो आप सब मित्र हो तो सही रोकने के लिए। बाकी साथियों ने जब पूछा कि अचानक यह निर्णय क्यों लेना पड़ा, उन्होंने जो कु छ कहा उसका आशय यही था कि आखिर ये सब भी तो जीव हैं, इन्हें भी तो जीने का हक है।
नॉनवेज छोडऩा अच्छा है या वेज होना अच्छा यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि सार्वजनिक रूप से अपनी कोई बुरी आदत को न सिर्फ स्वीकारना, बल्कि अपने दोस्तों को यह दायित्व सांैपना कि राह से भटकने की स्थिति बने तो दोस्त अपना दायित्व पूरा करें, बड़ी बात है।
हमारी आदत तो यह है कि हम अपनी अच्छाइयों को तो बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और यह अपेक्षा भी रहती है कि लोग हमारी तारीफ भी करें। हर वक्त यह सतर्कता भी बरतते हैं कि हमारी बुरी आदतें या तो लोगों को पता नहीं चले या पता चल भी जाए तो हम दूसरों की बुराइयों से तुलना करके अपनी बुराई को छोटा बताने का रास्ता निकाल लें। समाज में अपनी हैसियत की खातिर हममें से ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीने लगे हैं। इसी कारण हम अच्छाइयों का बखान करना और बुराइयों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि लोगों को हमारी खामियां तलाशने में अधिक दिलचस्पी रहती है। यही कारण है कि हमारी छोटी सी गलती भी घूम फिरकर पहाड़ की तरह हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। बुरी आदत को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना तो बहुत हिम्मत का काम है, हालत तो यह है कि अपनी किसी बात से सामने वाले का दिल दुखने पर हम तो माफी मांगने का साहस भी नहीं दिखा पाते।
संगत का असर हमारे आचरण में भी झलकता है। अच्छे दोस्तों का साथ होगा तो बुरी आदतें पास आने में घबराएंगी लेकिन साथ खराब होगा तो हमारी अच्छी बात में भी खराबी तलाशी जाएगी। इसलिए जब स्कूल से बेटा अपना खराब रिपोर्ट लेकर आता है तो ज्यादातर पेरेंट्स क्लास टीचर से यही रिक्वेस्ट करते नजर आते हैं कि इसे अगली बैंच पर बैठाएं। अगली बैंच में कोई जादू नहीं होता लेकिन इस बैंच के लिए टीचर जिन स्टूडेंट का चयन करते हैं उनके कारण इसका महत्व बढ़ जाता है। किसी बुराई से छुटकारे के लिए अपने दोस्तों पर जिम्मेदारी डालना यानी उन्हें कोई अन्य बुराई छोडऩे के लिए प्रेरित करना भी है। फंडा सीधा सा है कि जब दोस्त बुराई छोड़ सकता है तो हम क्यों नहीं।
किसी अच्छे काम को करने के लिए हम दिन तय नहीं करते तो कोई बुरी आदत भी एक झटके में ही छोड़ी जा सकती है। हम कल के चक्कर में रोज आज की सीढिय़ों पर बुराइयों का थैला कंधे पर लादे चढ़ते जाते हैं, यह बोझ भारी तब लगता है जब हम जिंदगी का आधे से ज्यादा सफर पूरा कर चुके होते हैं। तब हमें अपनी कमजोरी का अहसास होता भी है तो उससे मुक्ति पाने की छटपटाहट में बाकी बचा वक्त भी गुजार देते हैं। शाकाहारी बनना चाहते हैं, शराब, सिगरेट या ड्रग्स की आदत से छुटकारा पाना चाहते हैं तो इसके लिए दोस्त हौसला बढ़ा सकते हैं, परिजन चट्टान की तरह आपके साथ खड़े रह सकते हैं, मनोचिकित्सक आपको आसान तरीके बता सकते हैं लेकिन इस सबसे पहले आपको अपनी मजबूत इच्छा शक्ति दर्शाना होगी, शुरूआत खुद को ही करना होगी। बुराई कोई सी भी हो उसे अंधेरे कमरे में ही गले लगाया जाता है लेकिन उजाला होता ही इसलिए है कि काले धब्बे फीके पड़ जाएं। किसी भी बुराई से पीछा छुड़ाने की ठाने तो खूब प्रचार करें क्योंकि बाजारवाद का नियम भी है, जितना ज्यादा प्रचार सफलता भी उतनी अधिक। जब हम खुद लोगों को बुराई छोडऩे की जानकारी देंगे तो मन पर हावी बोझ भी कपास जैसा हल्का हो जाएगा।