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Thursday, 7 April 2011

फालतू नहीं है मदद करने वाले

आप के मोहल्ले, कालोनी में भी कुछ ऐसे लोग होंगे ही जो किसी भी घर में मुसीबत की जानकारी मिलने पर तन, मन, धन से मदद में जुट जाते हैं। तब इन्हें अपने परिवार के सुख-दुख की भी याद नहीं रहती। अंजान चेहरों पर मुस्कान के लिए मदद को दौड़ पड़ने वाले ऐसे निस्वार्थ लोगों को हम में से ही कई लोग फालतू कहने में भी नहीं हिचकते। जरा सोचिए कितने लोगों का ऐसा व्यवहार है, ऐसे लोगों के कारण ही समाज में मानवीय पर्यावरण बचा हुआ है जबकि हम सब उसे भी प्रदूषित करने में कोई कसर नही छोड़ रहे। जिनका काम हमें फालतू लगता है जरा एक दिन उनके जितना वक्त दूसरों के लिए देकर तो देखें।
बस स्टैंड के समीप सड़क के बीचोंबीच खड़ी गाड़ी का फ्रंट गेट खुला हुआ था, उस गेट का सहारा लेकर गर्दन झुकाए खडे अधेड़ उम्र के सरदारजी बुरी तरह हांफ रहे थे। उन्हें पकड़े हुए युवती अपने दूसरे हाथ से उनकी पीठ सहला रही थी। रात का वक्त होने के बावजूद गाड़ी के आसपास भीड़ एकत्र थी। समीप पहुंच कर देखा और वहां खडे लोगों की चर्चा सुनी तो समझ आया कि उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ा है। वह युवती उनकी पुत्री है तथा ये लोग चंडीगढ़ के रहने वाले हैं। इन दोनों को एक सिख युवक ढांढ़स बंधा रहा था कि यादा परेशानी हो तो आइजीएमसी हास्पिटल ले चलते हैं। इसी युवक ने यहां-वहां भागदौड़ कर अस्थमा मरीज के लिए बेहद जरूरी इनहेलर (पम्प) एवं दवाइयों का इंतजाम किया था। वह सलाह भी दे रहा था कि ये दवाई तो हमेशा आप को साथ रखना चाहिए।
दूसरी तरफ इन लोगों का कहना था हमें याद नही रहा कि पहाड़ी इलाके में जा रहे हैं। ये लोग होटल से चेकआउट करके निकले और उनकी तबीयत बिगड़ गई। समीप ही दवाई की दुकान थी, वहां से लाइफ सेविंग ड्रग खरीदना चाही लेकिन दुकानदार ने यह कहकर दवाइयां देने से इंकार कर दिया कि आडिट चल रहा है। कुछ देर बाद उन सरदारजी की हालत बातचीत करने जैसी हुई, उन्होंने समय पर दवाइयां उपलब्ध करा कर जीवन बचाने वाले उस युवक का आभार माना। बेटी ने मां को आंखों ही आंखो में दवाई के पैसे देने के लिए इशारा किया। मां ने पर्स से नोट निकाल कर देना चाहे उस युवक ने विनम्रता से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि दवाई से बढ़कर नोट नही है। आसपास खडे लोगों ने उस सिख युवक के इस कार्य की सराहना करते हुए उसे देवदूत कहा तो उसका कहना था ये सब तो मुझ से रब ने कराया है जी, मैं कौन हूं। यदि यह युवक समय रहते दवाइयां उपलब्ध नहीं कराता तो उनकी हालत और गम्भीर हो सकती थी।
आज जब यादातर लोग सड़क पर तड़पते किसी व्यक्ति को देखने के बाद भी मदद को आगे नहीं आते ऐसे में इस युवक का काम सराहना योग्य तो था ही। हमारे आसपास भी ऐसे कई लोग हैं जो हर वक्त लोगों की मदद को तत्पर रहते हैं, पर हम कहां उनके इस काम की कद्र कर पाते हैं। पहली नजर में उनका काम ढोंग लगता है तो कई लोग इसे कम अक्ल के नमूने कहने की जल्दबाजी करते हैं। और जब हमारा ही मन हमें ऐसे कार्य करने वालों की सराहना के लिए बाध्य करता है तो हम रब के ऐसे बन्दों का हौसला बढ़ाने में भी कंजूसी करते हैं। एक प्रसंग और याद आ रहा है। एक मित्र का बेटा खेलते-खेलते सड़क पर आ गया और उसी वक्त वहां से निकल रही एक कार से टकरा जाने के कारण उसके पैर मे फ्रेक्चर हो गया। मित्र के लिए बहुत आसान था कि वे पुलिस में रिपोर्ट लिखाते, फिर लंबे समय तक केस चलता। मित्र के मन में केस दर्ज कराने की बात इसलिए नहीं आई क्योंकि उस कार मालिक ने बच्चे को अस्पताल में दाखिल कराने, कई रात अस्पताल में बिताने के साथ ही उपचार का सारा खर्च भी वहन किया। वरना तो उसके लिए यह यादा आसान था कि एक मुश्त राशि देकर राम-राम कर लेता या घायल बालक को सड़क पर तड़पता छोड़कर फरार हो जाता। पुलिस केस दर्ज होता भी तो अंतत: दोनों पक्षों में विवाद आपसी समझौते से ही निपटता। सारा काम धन्धा छोड़कर उस कार मालिक का दिन-रात अस्पताल में हाजिर रहना गुनाह से यादा मानवीयता की मिसाल पेश करने जैसा ही है। क्या ऐसे सारे लोगों के काम को अनदेखा किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण ही हमारे आसपास मानवीयता का थोड़ा बहुत स्वच्छ पर्यावरण बचा हुआ है। क्यों हम शंका-कुशंका की नजर से देख कर इसे भी प्रदूषित करने में लगे हैं? हम खुद तो किसी के लिए खुदाई खिदमतगार बनना नहीं चाहते लेकिन जो लोग बिना किसी अपेक्षा के अंजान लोगों के दर्द को खुशी में बदलने के लिए तन-मन-धन से लगे रहते है क्या हम उनकी सराहना भी नहीं कर सकते। अपनों के दर्द में तो अपने ही खडे रहते है लेकिन चर्चा उस अंजान की यादा होती है जो मुश्किल काम भी आसान करता जाता है और आभार, धन्यवाद की चाहत भी नहीं रखता। कई बार हम ऐसे काम में उलझे होते हैं कि हम अपने ही पारिवारिक सदस्य की मदद नहीं कर पाते, उन लोगों का हमें कई बार उलाहना भी सुनना पड़ता है लेकिन हर वक्त मदद को तत्पर रहने वाले ये सारे वो लोग होते हैं जिनका अपना घर-परिवार भी होता है लेकिन अंजान लोगों के चेहरों पर मुस्कान की खातिर अपने परिवार की प्राथमिकताओं को भी भुला देते हैं, अच्छा होगा कि हम ऐसे लोगों को कम से कम फालतू मानना तो छोड़ ही दें।