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Wednesday, 26 May 2010

जो नहीं मिला उसका ज्यादा दुख

हम अपने घर की हालत तो सुधार नहीं पाते मगर दूसरों के अस्त-व्यस्त घरों को लेकर टीका टिप्पणी करने से नहीं चूकते। हमारा स्वभाव कुछ ऐसा हो गया है कि पड़ोसी का सुख तो हमसे देखा नहीं जाता। उसके दुख में ढाढस बंधाने के बदले सूई में नमक लगाकर उसके घावों को कुरेदने में हमेशा उतावले रहते हैं।
जब पुरानी संदूकों के ताले खोले जाते हैं तो सामान उथल-पुथल करते वक्त ढेर सारे नए खिलौने भी हाथ में आ जाते हैं। तब याद आती है कि घूमने गए थे तब ये तो बच्चों के लिए खरीदे थे। उन्हें खेलने के लिए सिर्फ इसलिए नहीं दिए कि एक बार में ही तोड़ डालेंंगे। अब खिलौने हाथ आए भी तो तब, जब उन बच्चों के भी बच्चे हो गए, और इन बच्चों के लिए लकड़ी और मिट्टी के खिलौने इस जमाने में किसी काम के नहीं हैं। उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि इन छोटे-छोटे खिलौनों में दादा-दादी का प्यार छुपा है।
अब हम इस बात से दुखी भी हों तो इन बच्चों क ो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके लिए अपना सुख ज्यादा मायने रखता है। ऐसे में कई बुजुर्ग कलपते हुए प्रायश्चित भरे लहजे में स्वीकारते भी हैं कि उसी वक्त हमारे बच्चों को खेलने के लिए दे देते तो ज्यादा अच्छा रहता। ऐसा किया होता तो निश्चित ही उस वक्त बच्चों को खुशी मिलती पर उससे हमारा अभिभावक वाला गुरूर खत्म हो जाता, शायद इसीलिए संदूक में रखकर ताला लगाकर भूल गए।
हम सब लगभग इसी तरह के प्रसंगों का सामना करते ही हैं। हमारे बुजुर्गों की न तो ज्यादा आवश्यकताएं थीं और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि वे हर हाल में खुश रहना और हालातों से समझौता करना जानते थे। अब ऐसा नहीं है, हमारे पास जो है उसे हम भोग नहीं पाते और जो हमेंं मिलना संभव नहीं उसे पाने के प्रयास में घनचक्कर हुए जाते हैं। पूरी जिंदगी मेें हममें से कई लोग तो यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि उन्हें क्या करना है और इस दुनिया में उनक ी कुछ उपयोगिता भी है या नहीं। हम कभी संतुष्ट नहीं हो पाते। लिहाजा परिस्थितियों से समझौता करना नहीं समझ पाते। समझौता करना नहीं चाहते इसी कारण अपने ही हाथों अपने जीवन को असहज बना देते हैं। जो सुख हमें मिला है उसमें खुश होने की अपेक्षा हम इस चिंता में ही अपना खून जलाते रहते हैं कि सामने वाला सुखी क्यों नजर आ रहा है। दूसरे से जलन के मामले में यूं तो हम महिलाओं के स्वभाव का जिक्र तत्काल करने लगते हैं लेकिन पुरुष स्वभाव भी इस मामले में बिल्कुल महिलाओं जैसा ही है। हमें अपना पांच हजार का जूता और दस हजार का मोबाइल एक दिन बाद ही तब घटिया लगने लगता है जब हमारा पड़ोसी अपने जूते और मोबाइल का दाम हमसे ज्यादा बताता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी महिला ने भले ही दस हजार की साड़ी और पचास हजार का हार क्यों न पहन रखा हो, शादी समारोह में वह पड़ोस से गुजरी महिला के नेकलेस की फुसफुसाते हुए तारीफ इसी अंदाज में करेगी मेरे हार से उसका हार कितना अच्छा है न, मुझे भी ऐसा ही लेना था। बस कहते जरूर हैं कि हमे किसी से मतलब नहीं, अपने में मस्त रहते हैं, पर क्या वाकई हमारी कथनी और करनी में अंतर नहीँ है। हम तब ही अपने में मस्त रहते हैं जब सामने वाला मुसीबत में हो। उस वक्त हम चिंतित रहते भी हैं तो इसलिए कि कहीं वह दुखी आदमी आकर हमारे सामने अपना दुखड़ा न रोने लगे। सामने वाला रात-दिन मेहनत करके तरक्की कर भी ले तो हम उसकी यह तरक्की इसलिए नहीं पचा पाते क्योंकि उस मुकाम तक हम नहीं पहुंच पाए। हमें अपना काम तो सर्वश्रेष्ठ लगता है लेकिन दूसरे के काम में हम कमिया ही तलाशते रहतेे हैं।
हम अच्छा करना नहीं चाहते और कोई हमसे आगे निकल जाए यह हमें पसंद नहीं। हमारा बच्चा परीक्षा में अच्छे नंबरों से पिछड़ जाए तो पेपर कठिन होना, तबीयत खराब हो जाने जैसे बहानों की मदद लेने मेें जरा सी देर नहीं लगाते। उसी क्लास में पढऩे वाला पड़ोसी का बच्चा अच्छे नंबर ले आए तो हम कहने से नहीं चूकते स्कूल वालों से पहचान है। ले-देकर नंबर बढ़वा लिए होंगे। छोटी सी जिंदगी में हमें अपना घर व्यवस्थित करने की फुरसत तो मिल नहीं पाती, दूसरे के अस्तव्यस्त घर का बखान करने में ही हम वक्त जाया करते रहते हैं। हमारे पास लोगों की मदद करने के लिए भले ही टाइम नहीं हो लेकिन सूई में नमक लगाकर उनके जख्म कुरेदने का भरपूर वक्त हमारे पास है।
एज केयर के सुझाव पर आज से ही अमल
संस्था एज केयर के अध्यक्ष डा वीके शर्मा के अनुरोध पर आज से इस कालम का पाइंट साइज कुछ बड़ा किया जा रहा है। उनका सुझाव था कि इससे वरिष्ठ नागरिकों को पढऩे में अधिक आसानी हो जाएगी।

Wednesday, 19 May 2010

जेब से तो कुछ नहीं जा रहा फिर इतनी कंजूसी क्यों

जिंदगी के साल कम होते जा रहे हैं और हम हैं कि अपने में ही खोते जा रहे हैं। कब, किस मोड़ पर किसकी मदद लेना पड़ जाए,यह हकीकत भी हमारी समझ में न आए। प्रेम के दो मीठे बोल, धन्यवाद का एक शब्द बोलने में हमारी जेब का एक धेला खर्च नहीं होता लेकिन हम यहां भी कंजूस बने रहते हैं, जैसे शब्दों को ज्वैलर्स की दुकान से तोले के भाव खरीद कर लाए हों। हां जब किसी की आलोचना करने का अवसर हाथ लग जाए तो इन्हीं शब्दों को पानी की फिजूलखर्ची की तरह बहाते रहते हैं।
जाने क्यों मुझे बैंक संबंधी कामकाज बेहद तनाव भरा एवं चुनौतीपूर्ण लगता है। शायद यही कारण है कि जब किसी नई बैंक में काम पड़ता है तो मैं इस सकारात्मक विचार के साथ बैंक में प्रवेश करता हूं कि कोई मददगार जरूर मिल जाएगा। माल रोड स्थित पीएनबी की शाखा में एकाउंट खुलवाने के लिए गया तो वहां पदस्थ मुकेश भटनागर मेरे लिए खुदाई खिदमतगार ही साबित हुए। कोई आपके लिए मददगार साबित हो तो क्या वह धन्यवाद का भी पात्र नहीं होता। मुझसे यह भूल हुई, लेकिन कुछ पल बाद ही मैंने सुधार कर लिया।
तनख्वाह के बदले सेवा देना किसी भी शासकीय, अशासकीय कर्मचारी का काम है। काम के बदले में हम चेहरे पर आभार के भाव और हल्की सी मुस्कान के साथ छोटे से धन्यवाद की गिफ्ट भी तो दे सकते हैं। उस कर्मचारी के लिए यह उपहार किसी भारी भरकम पुरस्कार से ज्यादा महत्व रख सकता है।
यह ठीक है कि थैंक्स की अपेक्षा के बिना भी सबकी मदद करना हमारा स्वभाव होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह भी नहीें कि हमें यदि शुगर के कारण मीठे से परहेज करना पड़ रहा है तो मेहमान को भी फीकी चाय ही पिलाएं। हम में से ज्यादातर लोगों का रेल्वे, बस स्टैंड की टिकट खिड़की, टेलिफोन, बिजली, पानी के बिल जमा कराने, अपने कार्यालय में मातहत साथी से, बैंक, स्कूल आदि में अक्सर कर्मचारियों से काम पड़ता ही रहता है। आभार के रैपर में, मुस्कान के धागे में लिपटी थैंक्स की गिफ्ट भेंट करना अकसर हमें याद ही नहींं रहता। सुबह से शाम तक लाखों का लेनदेन करने वाले बैंक कैशियर को आपके थैंक्स से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कल्पना तो करिए जब शाम को टोटल करते वक्त हजार-पांच सौ रुपए का अंतर आ जाए तो वह कर्मचारी खाना पीना भूल जाता है। अस्पताल में दाखिल हमारे रिश्तेदार का सफल आपरेशन करने वाले डाक्टर को तो हम थैंंक्स कहने में देर नहीं करते लेकिन बैंक में पैसा जमा करने, टिकट खिड़की या बिल जमा करने वाले काउंटर पर तैनात कर्मचारी की कार्यप्रणाली से शायद ही कोई खुश होता हो। सारे कर्मचारी एक जैसे नहीं होते लेकिन हम अपना नंबर आने तक उनके काम की समीक्षा करते हुए यह सिद्ध कर देते हैं कि उससे अधिक तेजी से काम कर के हम दिखा सकते हैं। हम ही फैसला सुना देते हैं कि सारे के सारे कामचोर, मक्कार हैं और इन्हीं जैसे कर्मचारियों के कारण देश तरक्की नहीं कर पा रहा है। दूसरों को उनकी अयोग्यता क्रा सॢटफिकेट देने के लिए तो हम उधार ही बैठे रहते हैं। कौन बनेगा करोड़पति की हाट सीट पर बैठै प्रतियोगी से ज्यादा तो हम जानते हैं। हमारा बस नहीं चलता वरना छक्का मारने से चूके सचिन को पिच पर जाकर समझा आएं कि थोड़ा सा और ऊपर उठाकर शॉट मारते तो बॉल बॉउंड्री पार हो जाती।
कभी एक दिन कैश काउंटर पर बैठ कर देखें या ओटी में आपरेशन करते डाक्टर को सहयोग करती सर्जरी वार्ड की टीम के साथियों की पल पल की मुस्तैदी देखें तो समझ आ सकता है कि नजरअंदाज किए जाने वाले हर व्यक्ति का भी कुछ ना कुछ तो सहयोग रहता ही है। इन कर्मचारियों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए थैंक्स कहना ही पर्याप्त होता है। अंजान राहों वाले, लंबे सफर में हम टैक्सी ड्राइवर के भरोसे सोते-जागते सफर पूरा करते हैं, किराया चुकाते वक्त मान लेते हैं उसका तो यह रोज का काम है। जरा सोचिए तो सही जान उसके हाथ में सौंप रखी थी, यदि उसे हल्की सी झपकी आ जाती तो...? महाभारत में अर्जुन यदि श्रेष्ठतम योद्धा साबित हुए तो इसीलिए की खुद भगवान श्रीकृष्ण उनके सारथी थे, इस सत्य को पांडव जानते भी थे।
रिश्ते हों या रोजमर्रा की जिंदगी, यदि सोचेंगे कि पैसे से सारे काम कराए जा सकते हैं तो जितना गुड़ डालेंगे उतना मीठा होगा। लेकिन हमारे व्यवहार में यदि कृतज्ञता और धन्यवाद वाला भाव होगा तो रिश्तों की बेल हरीभरी और बिना पानी के भी बढ़ती रहेगी। संसार सिकुड़कर अब छोटा हो गया है, जिंदगी के साल उससे भी कम होते जा रहे हैं। कब, किससे, किस मोड़ पर हमें काम पड़ जाए। रास्ते का हर पत्थर मंदिर में मूर्ति के काम नहीं आ सकता लेकिन डगमग करती पानी की मटकी को स्थिर करने, दीवार में कील ठोंकने के लिए या आम, इमली तोडऩे के लिए पगडंडी के किनारे पड़ा जो पत्थर हम तुरंत उठा लेते हैं, उस वक्त हमें कहां पता होता है कि पिछली बार इसी राह से गुजरते वक्त बीच राह में पड़े ऐसे ही किसी पत्थर को खेल-खेल में ठोकर मार कर दूर उछाल दिया था। निर्जीव पत्थर जब हमारे काम आ सकता है तो रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे काम आ रहे सजीव इंसानों के प्रति क्या हम थोड़े से सहृदय नहीं हो सकते, इस काम में एक पैसा भी इंवेस्ट नहीं करना पड़ता है।

Thursday, 13 May 2010

कांटे भी सिखाते हैं बहुत कुछ

राह में कांटे बिछाने का अधिकार मजदूरों को मिला है तो इसलिए कि वह नई राह भी बनाते हैं। हम हैं कि कांटें बिछाना और अपने दमखम पर तरक्की करने वालों की टांग खींचना ही जानते हैं। दोस्त जब हमें हमारी गलतियां बताते हैं तो वो भी हमें कांटों के समान लगते हैं। तब भी हम भूल जाते हैं कि गुलाब फूलों का राजा इसलिए है कि वह कांटों को गले लगाना जानता है।
माना तो यह जाता है कि कांटे और कंटीली झाडिय़ां किसी काम नहीं आते, लेकिन शिमला के पहाड़ी रास्तों के सीमेंटीकरण और टाइल्स लगाने में कंटीली झाडिय़ों की टहनियों का सहयोग न हो तो ये रास्ते भी जल्दी समतल न हो पाएं। यह ठीक वैसा ही है कि जीवन में सुख-दुख न हो तो किसी एक का महत्व पता ही नहीं चल पाए। रोज खाने में गरिष्ठ भोजन खाते-खाते भी मन एक दिन मूंग की दाल-रोटी की मांग स्वत: करने लगता है।
कांटे बिना, गुलाब भी फूलों का राजा इसलिए नहीं कहा जा सकता कि राजा ही तो सभी को प्रसन्न रखने के लिए कांटों का ताज पहनता है। पहाड़ी रास्तों को समतल बनाना भी अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं और जब इन रास्तों पर टाइल्स लगाना या सीमेंटीकरण करना हो तो किए गए काम को सूखने-मजबूत होने के लिए 24 घंटे का अंतर तो रखना ही पड़ेगा। मजदूर शाम को जब काम बंद करके जाने लगते हैं तो तैयार किए मार्ग पर कंटीली टहनियां डाल जाते हैं। ये मजदूर राहगीर के रास्ते में शायद कांटे इसलिए बिछाते हैं कि राह से आने-जाने वाले इन कांटों से बचकर चलना सीख लें तो जीवन में आने वाली मुश्किलों को भी बिना घबराए पार करना समझ जाएंगे।
जैसे कांटे गुलाब की सुंदरता की रक्षा करते हैं उसी तरह ये कंटीली झाडिय़ां तैयार किए गए रास्तों को पैरों की धमक से बचाती हैं। 24 घंटे में जब पर्याप्त धूप-हवा-पानी से ये मार्ग मजबूत हो जाता है तो मजदूर इन कंटीली टहनियों को अगले निर्मित हिस्से पर रख देते हैं।
सारे शिमला में कहीं न कहीं इस तरह के निर्माण कार्य चलते ही रहते हैं। मुझे लगता है रास्तों को समतल बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले कांटो वाला दर्शन हम सब को यह संदेश भी देता है कि जिंदगी के सफर में आने वाली तमाम मुश्किलें भी तो इन्हीं कांटों के समान है। जो मुश्किलों से घबरा जाते हैं वो कांटों के इस दर्शन को नहीं समझ पाते। हमारी बुराइयों को जो मित्र सार्वजनिक रूप से बताने का साहस करता है वह हमें कांटों के समान ही लगता है। ऐसा लगने पर यदि हमें कांटों के बीच खिलने वाले गुलाब की याद आ जाए तो हमें अपने ऐसे दोस्त भी प्रिय हो सकते हैं। दोस्त जब हमारी गलतियों पर हमें बिना किसी लाग-लपेट के बताते हैं तो वे हमारे दुश्मन नहीं बल्कि हमारे सच्चे शुभचिंतक ही होते हैं।
ये निंदक हमें अपनी गलतियां सुधारने के लिए आइने के समान ही हैं। आइने में हमारी सूरत भी अच्छी तभी दिखेगी जब हमारी अच्छाइयां लोगों को नजर आएंगी। मन में मैल, विचारों में खोट होगी तो सूरत मटमैली नजर आएगी। ऐसे में आइने को चाहे जितना साफ करते रहें, दोष उसका नहीं हमारी सूरत का है। लोगों को बिछाने दें कांटे, हम किसी की राह में फूल बिछाने की उदारता तो दिखाएं। कोई हमारे लिए अच्छा करे तब हम भी किसी के लिए अच्छा सोचेंगे, यह धारणा किसी को तो छोडऩा ही होगी। जो कांटों के बदले फूल देगा उस पर फूलों की बारिश करने को लोग भी आतुर रहेंगे।

Monday, 10 May 2010

जरा संभलकर, बहुत नाजुक है रिश्तों की डोर

रिश्तों की डोर बहुत नाजुक होती है। अंह का हल्का सा झटका लगने पर टूट जाती है। जोडऩे के लिए इतनी गठानें न लगाएं कि यह डोर मजबूत रस्सी जैसी हो जाए। रिश्तों की रस्सी जब इन गठानों के कारण उलझ जाती है तो हमें पता ही नहीं चल पाता कि नाजुक डोर को आखिर किसने खींचा था जोर से। ये गठानें शक की नींव पर नफरत की दीवार को इतना मजबूत कर देती हैं कि जब हम रोना चाहते हैं तो किसी अपने का न तो कंधा मिलता है और न ही कोई हमारे सिर पर हाथ फेरने वाला रहता है। मनी वाले रिश्तों में धन रहने तक ही मन बना रहता है वरना तो ये रिश्ते नीम से कड़वे हो जाते हैं।
रिज मैदान पर सुबह के वक्त बच्चे क्रिकेट और फुटबाल खेलते देखे जा सकते हैं। क्रिकेट की बॉल हो या फुटबाल वह जितनी ताकत से फें की जाती है उतनी ही तेजी से लौट कर भी आती है। ये खेल कुछ देर देखने पर मुझे लगा कि हम सब का जीवन भी तो ऐसा ही है। आपसी रिश्तों को हम जिस तरह निभाते हैं, रिप्लाय भी हमें वैसा ही मिलता है।
हमारे एक परिचित हैं वो दान धर्म भी अपने अंदाज में करते हैं। जब मंदिर या किसी धार्मिक कार्यक्रम में जाते हैं तो दस रु के आठ वाले केले तलाशते हैं और जब अपने बच्चों के लिए फल ले जाना हो तो मोलभाव करने के साथ ही यह भी ध्यान रखते हैं कि केले, आम दागदार, पिलपिले न हों। उनका तर्क रहता है पैसा अच्छा दे रहे हैं तो माल क्यों घटिया लें।
क्या हम संबंधों को भी इसी तरह नहीं निभाते। जब रिश्तेदारी में खर्च वाले किसी प्रसंग शादी, बर्थ डे, राखी, वैवाहिक वर्षगांठ आदि में हमें शामिल होना हो तब हमारी कोशिश रहती है कि जितना सस्ते से सस्ता उपहार मिले ले जाएं। अपने ही मन से हम तर्क भी गढ़ लेते हैं, आजकल गिफ ्ट वगैरह देखता कौन है, ये तो औपचारिकता केे कारण ले जा रहे हैं। हमारे संबंध तो इतने आत्मीय हैं कि उसके सामने ये गिफ्ट तो बेमतलब है, पर क्या करें बाकी लोग लाएंगे और हम खाली हाथ जाएं यह अच्छा भी तो नहीं लगता।
जब हमारे यहां ऐसा कोई शुभ प्रसंग आता है तो हमारी सोच पल भर में बदल जाती है। अब हम तोहफे का रैपर खोलने से पहले ही उसे ठोंक बजा कर अंदाज लगा लेते हैं कि अंदर क्या है। तोहफ े या साड़ी को देखकर उसका मूल्य आंकने के साथ ही नफा नुकसान की समीक्षा भी हाथों-हाथों करते चलते हैं। बस इसी वक्त हम भूल जाते हैं कि हमने तब कैसी गेंद फेंकी थी।
रिश्तों की इस नाजुक डोर को हम जरा-जरा सी बात में इतनी जोर से खींचते रहते हैं कि यह पता ही नहीं चलता कि डोर कितनी बार टूट गई और उसमें कितनी गठानें लग गर्इं। जब धागे में गठानें लगती जाएं तो वह रस्सी की तरह मजबूत हो जाता है और यह मजबूत गठानें दिलों में दरार, रिश्तों के बीच दीवार खड़ी करने का काम करती हैं। ऐसे सारे कारणों से तो कोठीनुमा मकान मेरे-तेरे क मरों में तब्दील हो जाते हैं।
रिश्तों को जब लेन-देन के तराजू पर तौला जाने लगे तो उनमें रिसन पैदा हो जाती है। यह स्थिति तब बेहद त्रासदायी हो जाती है जब हमें अपनी खुशी सेलिब्रेट करते वक्त तो अपनों की कमी खलती ही है, दुख का पहाड़ टूटने पर सिर रख कर रोने के लिए कंधे तक नहीं मिलते। कहते तो यह भी हैं कि जेब में पैसा हो तो रिश्तेदारों की फौज खड़ी हो जाती है लेकिन यह फौज भी तभी तक अपना प्रेम प्रदर्शित करती है जब तक तिजोरी और जेब से नोट झलकते रहते हैं। आसपास ही नजर डाल लें कभी करोड़ों में खेलने वाले ऐसे एक दो रोडपति तो मिल ही जाएंगे जिनके लिए खून बहाने का दावा करते रहने वाले भाई भाभी अब किसी और करोड़पति के लिए अपनापन दिखाने में जुटे हुए हैं । पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है लेकिन रिश्तों में अपनेपन की गर्माहट के लिए पैसा तो जरूरी नहीं होता। खेल के मैदान में तो जीतने के लिए बॉल तेज फेंकना अनिवार्यता ही है लेकिन बात जब नाजुक रिश्तों की हो तो इतनी तेज बॉलिग जरूरी नहीं है कि सामने वाले के दिल को चकनाचूर कर दे। रिश्ते तो तलवार की धार पर नंगे पैर इस तरह चल कर दिखाने की कला है कि पैर घायल भी ना हों और लोग आपके कायल हो जाएं।

जो सीखा है अपनों को सिखाइए

बांटने से दौलत कम हो सकती है लेकिन ज्ञान कम नहीं होता। जो आपने सीखा है बाकी लोगों में बांटिए। आपकी यही उदारता हमें अपनों में आदर योग्य बनाती है। तब हम भी कुछ सीखते हैं। ज्ञान बांटा नहीं जाए तो वह अहंकार में बदलता जाता है। हम सब को रावण का अंत पता तो है। ज्ञान की दृष्टि से मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी उसका आदर करते थे लेकिन यही ज्ञान जब अहंकार में बदल गया तो उन्हीं राम के हाथों उसे मुक्ति मिली। गड्ढे में एकत्र पानी भी कुछ दिनों बाद सडऩे लगता है फिर हम अपना हुनर साथियों में बांटकर क्यों नहीं उन्हें अपने जैसा देखना चाहते?
महाभारत के पात्र अभिमन्यु के अलावा तो और किसी के संदर्भ में पढऩे को नहीं मिला है कि जो मां के पेट से ही सब कुछ सीख के आया हो। मां के गर्भ में रहते ही अभिमन्यु ने युद्ध के मैदान में शत्रु सेना के चक्रव्यूह को कैसे भेदा जाए यह समझ लिया था। बाकी तो बोलचाल में यही कहा जाता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और न ही मां के पेट से हर कोई सब कुछ सीख कर आता है। जन्म लेने के बाद घर, स्कूल, दोस्तों और आसपास के वातावरण से सीखते हैं और बड़े होने पर ठोकरें खाकर ही हम ठाकुर बनते हैं।
अपनों में रहकर अपने लोगों से ही हम सारे दावपेंच सीखते हैं। किसी को गॉडगिफ्ट होती है, तो वह कुछ जल्दी, कुछ ज्यादा और कुछ बेहतर सीख लेता है। तो कोई अपनी दिमागी क्षमता के अनुसार ही ग्रहण कर पाता है। यानी चाहे परिवार हो, प्रकृति हो, पास-पड़ोस हो या प्रियमित्र जिनसे भी हम कुछ सीखते हैं तो सिखाने वाले हमें देने में कमी नहीं करते। उन्हें पता होता है कि बांटने से ज्ञान कम नहीं होता जब कोई हमें कुछ सिखाता है तो वह भी हमसे कुछ सीखता है। किसी नई दवाई की खोज और उसका प्रभाव जानने के लिए पशु-पक्षियों पर परीक्षण किया जाता है। वैज्ञानिक पशु-पक्षी की पल-पल की हरकतों से सीखते हैं कि दवाई का कितना डोज किसके लिए कितना उपयोगी होगा तथा निर्धारित मात्रा से अधिक दिए जाने पर व्यक्ति पर दवाई का विपरीत प्रभाव कैसा होगा। पशु-पक्षी बांट नहीं पाते लेकिन वह भी प्रयोग को एक सीमा तक ही स्वीकारते हैं और जहां तक उनके बस में होता है विरोध भी करते हैं। यानी दोनों पक्ष ही एक-दूसरे से कुछ न कुछ सीखते ही हैं।
पता नहीं क्यों हमारे आसपास ऐसे लोगों की संख्या पिछले कुछ वर्षों में बढ़ती ही जा रही है जिन्हें अपने ज्ञान पर गुरूर अधिक है जबकि ज्ञान तो विनम्र बनाता है। बागीचे में हम देखते ही हैं जिन पेड़ों पर आम, अमरूद, सेब अधिक संख्या में लगे होते हैं, उन पेड़ों की डालियां जमीन की तरफ झुकी-झुकी सी नजर आती हैं। जैसे सिर झुकाकर पुथ्वी-प्रकृति का आभार मान रही हों कि आप की बदौलत ही मुझे यह सौभाग्य मिला। उसके विपरीत खजूर और ताड़ के वृक्ष भी हैं। खजूर किसी को छांव का एक कतरा भी नहीं दे पाता फिर भी अकड़ के खड़ा रहता है। ताड़ वृक्ष फल कम पेय पदार्थ अधिक देता है। ज्ञान के अहंकार ने समाज में कई लोगों को खजूर वृक्ष की प्रकृति दे दी है। जिनके पास ज्ञान है और परमात्मा की इस कृपा को अज्ञानी लोगों में वितरित नहीं करते। वे यह तो भूल ही रहे हैं कि जिस परमशक्ति की कृपा से उन्हें यह सब प्राप्त हुआ है उस शक्ति का तो अपमान कर ही रहे हैं। साथ ही यह भी भूल रहे हैं कि यदि पानी प्रवाहमान न हो, एक ही गड्ढे में एकत्र पड़ा रहे तो कुछ समय बाद वह भी सडऩे लगता है। प्यास से भले ही दम क्यों न निकले को हो, उस गड्ढे को सड़ा पानी पीकर प्यासा भी समय से पहले मरने की अपेक्षा कल-कल बहती नदी की तलाश में सारी शक्ति झोंक देता है।
स्कूल से लेकर कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद हम सब किसी न किसी पेशे में सक्रिय हैं। क्या कारण है कि उन 15-18 वर्षों की पढ़ाई के दौरान हमें स्कूल-कॉलेज के गिने-चुने टीचर ही याद हैं। सभी टीचर्स ने हमें सिखाने-समझाने में कोई कमी नहीं रखी फिर भी दो-चार शिक्षक ही क्यों हमारे दिल पर छाप छोड़ पाए। वृद्धावस्था से गुजर रहे ये शिक्षक जब कभी अचानक हमें रास्ते में टकरा जाते हैं तो क्यों हम श्रद्धा से उनके पैरों में झुक जाते हैं। शायद इसीलिए कि उनके सिखाने-समझाने का अंदाज ही कुछ और था। हम जैसे समझ पाते थे वो उसी अंदाज में सिखाते थे। न तो उन्होंने अपने ज्ञान का गुरूर किया और न ही हमारी कम अकल का मखौल उड़ाया। ऐसे शिक्षक हमें पहचान नहीं पाते हम उन्हें अपनी तब की कमजोरी से उन्हें याद दिलाते हैं, सर मैथ्स में कमजोर था आपने आसान फार्मूले बताए थे। अंग्रेजी समझ नहीं आती थी, फिजिक्स के फार्मूले बताए थे। आपने घर पर पढऩे बुलाया था....।
ज्ञान बांटने वाले इन शिक्षकों की तरह विभिन्न संस्थानों में हमारे बॉस रहे व्यक्ति को भी याद नहीं रहता कि कब आपने उनके मातहत काम किया और उनसे क्या सीखा। भीषण गर्मी में हवा का एक झोंका कितने लोगों को राहत पहुंचाता है, यह उस झोंके को याद नहीं रहता। पानी की टंकी में नल न लगा हो तो वह किसी की तो प्यास बुझा नहीं सकती।
संसार में उन लोगों को ही आदर से देखा और पूजा जाता है जो लुटाने में विश्वास रखते हैं। बिल गेट्स अरबपति होने से ज्यादा इस रूप में जाने जाते हैं कि कमाई का बड़ा हिस्सा सद्कार्यों के लिए समर्पित करते रहे हैं। दूर क्यों जाएं बीते वर्षों में हमने कई राष्ट्रपति देखे लेकिन क्या वजह है कि भूतपूर्व होने के बाद भी एपीजे कलाम का नाम आते ही हमारा मन उनके प्रति राष्ट्रपति वाले आदर भाव से भर जाता है। हम भी तो सोचें हमने अपने से जुड़े लोगों को ऐसा कुछ दिया है क्या कि जब वो हमारा जिक्र करें तो उनमें उत्साह नजर आए और वे सब बताएं कि हमसे क्या अच्छा सीखा। हम अपना मूल्यांकन इस तरह भी कर सकते हैं कि मित्रों के बीच जब हम पहुंचते हैं तो वे हमारा उत्साह से स्वागत करते हैं या हमारे पहुंचते ही चुप्पी साध लेते हैं।