पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday, 26 May 2011

तुम याद बहुत आओगे

कौन, कब, कितना याद आता है इसका आज तक तो कोई बेरोमीटर बना नही है। न ही कोई ऐसा पैमाना है कि जिससे पता चले कि हमने किसी को कितना याद किया। किसी की याद तभी आती है जब वह हमारे पास नहीं होता या हमें यह पता चल जाए कि हम उस अपने से दूर होने वाले हैं।

हम जब किसी अंजान शहर मे जाते हैं। तो भीड़ का हिस्सा बन जाने के बाद भी अलग-थलग से रहते हैं तो इसलिए कि हम जानते हैं कि इस भीड़ में जितने लोग हैं वह सब अंजाने हैं। बस ऐसे ही वक्त में हमें अपनों की याद आती भी है तो कैसे कि उन अपरिचित चेहरों में हम किसी अपने का चेहरा देखने लगते हैं। उस शहर के चौराहों, गलियों में अपने शहर की कोई मिलती-जुलती गली-मकान खोज लेते हैं और इस तरह वह अंजान शहर फिर चाहे वह शिमला हो, गंगानगर, उदयपुर हो या उजैन जाने कब हमारा अपना बन जाता है। पता ही नहीं चलता। अंजाना शहर हम में कितना रच-बस गया है यह भी तब पता चलता है जब अचानक उस शहर को छोड़ने के हालात बन जाएं। सरकारी नौकरी में तबादले का दर्द सहने वाले कर्मचारी वर्ग से कौन यादा समझ सकता है अपने शहर को छोड़ने और किसी भी अंजाने शहर से जुड़ी अपनी यादों का आइना टूटने का दर्द।
शिमला की ही बात करें तो यहां का मौसम, देवदार-चीड़ के दरख्त कहां भुलाए जा सकते हैं। संघर्षों के बीच दाना-पानी के लिए संघर्ष करते बन्दर और बाकी पशु-पक्षी, संकरे रास्तों और उंचाई पर बने मकानों तक के सफर को आसान बनाते कुली(खान), चाहे जितने तनाव में भी पेशेंस नहीं खोने वाले आम लोग, बर्फीले मौसम में भी अपने दायित्व आसानी से पूरे करने वाले होकर, डाककर्मी, यादा की चाहत नहीं और जो है उसमें खुश रहने के आध्यात्म को दर्शाते लोग ये सब बताते हैं कि पहाड़ों की इस चुनौतीपूर्ण जिन्दगी को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
पहाड़ों के शिखर पर इठलाते, आसमान छूने की कोशिश करते नजर आने वाले देवदार क्या भुलाए जा सकते हैं। जाने क्यों मुझे ये ऊंचे-ऊंचे दरख्त अहसास कराते हैं कि जीवन में कुछ पाने, ऊंचा उठने के लिए संघर्ष के सफर वाले रास्ते पर चलना है तो पीछे काफी कुछ छोड़ते हुए चलना पडेग़ा। देवदार बताते हैं कि जो उंचा उठते हैं उन्हें कई तरह के त्याग करने पड़ते हैं। देवदार जैसे खड़ा सौ साल का और आड़ा भी इतने ही साल का तो जो ऊंचा उठने की चाहत रखते हैं वे सब भी अपना नाम-काम इतने वर्षों तक तभी बनाए रख सकते हैं जब वे देवदार-चीड़ जैसे वृक्षों की तरह हर हाल में अपना वजूद बनाएं रखने को तत्पर रहना सीख लें।
कोई भी अंजान शहर, अपरिचित लोग आप के तभी हो सकते हैं जब आप इन सब से तालमेल बैठाना सीख लें। आप जिस शहर में जाएं उस के प्रति एहसानमंद ना हो अपने शहर और अपने लोगों का ही गुणगान करते ना थके तो यह उस शहर के प्रति नाइंसाफी ही होगी। ऐसी तो बहू भी अपने ससुराल में कभी किसी का दिल नहीं जीत पाएगी जो रहे तो ससुराल मे लेकिन बात-बात मे मायके का जिक्र करना नहीं भूले। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धियों वाली मंजिल तक तभी पहुंचा जा सकता है जब उस काम के प्रति शतप्रतिशत समर्पण वाला भाव हो। यानी अंजान शहर, वहां के लोगों को आप अपना तभी बना सकते हैं जब वहां के रंग-ढंग मे ढलना भी सीख लें। ऐसा होने पर ही पता चल सकता है कि कल तक जो शहर, जो लोग अपरिचित से थे वह सब तो अपने से हो गए हैं। यह अपना सा लगने का भाव ही शहर छोड़ते वक्त तुम्हे कैसे भुलाऊं की पीड़ा मे बदल जाता है।

Thursday, 12 May 2011

सीखने की कोई उम्र नहीं होती

हर दम सीखने की आतुरता से मिलने वाली सफलता और ना सीखने के लिए दिमाग के दरवाजे बंद रखने का दर्द वही जान सकता है जो इन दोनों में से किसी एक हालात से गुजरा हो। यदि हम मान कर चलें कि हमें तो सब आता ही है, अब क्या जरूरत है सीखने कि तो नुकसान हमारा ही होगा। हम टायपिंग में माहिर हों और कम्प्युटर की वर्किंग ना जानते हो, कम्प्युटर के जानकार हों और गूगल, नेट, इमेल आदि की जानकारी ना रखते हों तो हाथ आए अवसर भी फिसल जाते हैं क्योंकि कोई दूसरा हम से ज्यादा जानता है। अवसर ना तो बार-बार आते हैं और ना ही समय हमारा इंतजार करता है। समय के साथ चलना है तो उसके मुताबिक ढलना होगा, यह आसान सी बात जो समझ लेते हैं उन्हें किसी भी क्षेत्र में परेशानी नहीं आती।


कमरे में बड़े तैश से प्रवेश किया उस युवक ने और बिना आगा-पीछा सोचे अपना निर्णय सुना दिया कि अब वह काम नहीं करेगा। टेबल की दूसरी तरफ बैठे उसके बॉस ने कारण पूछा तो उसका जवाब था मेरे ढाई-तीन साल के कॅरिअर में यह पहला अवसर है जब काम को लेकर उसे इस तरह जलील किया गया। इस सारे घटनाक्रम के दौरान मेरा मूकदर्शक बने रहना इसलिए भी जरूरी था कि यह उन लोगों के बीच का आंतरिक मामला था।
अब बॉस उस युवक से पूछ रहे थे कि तुम्हें किसी निजी काम के लिए फ़टकार लगाई या सौंपे गए काम में कोताही बरतने के लिए? उस सहकर्मी के तेवर यही थे कि आप ने मेरी बात सुनी नहीं और बेवजह डांटा। बॉस ने पूछा तुम्हें जो निर्देश दिए गए थे, क्या उस प्लानिंग के मुताबिक अपने काम को अंजाम दिया? इस प्रश्न का जवाब देने की अपेक्षा वह मुझे अब काम नहीं करना कहते हुए उठ कर चला गया।
संस्थान के बॉस ने मुझे जो बताया वह यह कि उसे काम सौंपते वक्त ही बता दिया गया था कि इसे कैसे किया जाए। यही नहीं वर्क प्रोग्रेस को लेकर फालोअप भी किया गया। इस सब के बाद भी उसने जो फायनल रिपोर्ट तैयार की उसमें वही सारी गलतियां की जिसके लिए उसे सतर्क किया
गया था।
एक तरफ तो हम यह मानते हैं कि पूरी उम्र सीखा जा सकता है। यानी सिर्फ कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने या डिग्री लेने से ही सीखने की सीमा समाप्त होना नहीं है। आप जिस भी फील्ड में हंै वहां हर दिन, हर पल अपने सहकर्मी, अपने दोस्तों, अपने दुश्मनों से कुछ ना कुछ तो सीख ही सकते हैं। अपने सहकर्मी से सीख सकते हंै कि काम को लेकर उसमे कोई कमी हो तो हम उस आधार पर अपनी कमियां दूर कर ले। दोस्त से सीख सकते है कि वह किन अच्छाइयों के कारण पहचाना
जाता है, वह सारी बातें हम भी अपना सकते हैं। इसी तरह दुश्मन की कमजोरी जान-पहचान
कर हम उसे आसानी से शिकस्त देना सीख
सकते है।
यह सीखने की प्रवृति तभी आएगी जब हम दिलो दिमाग से तैयार भी रहें। रोज तकनीक में हो रहे परिवर्तन, तेजी से बदलते जमाने के मुताबिक हम खुद को बदलाव के लिए तैयार ना रखें, खुद को अपडेट भी ना रखें तो इसमें नुकसान भी हमारा
ही है।
कई बार हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि संस्थान में हम सबसे पुराने कर्मचारी हैं तो हमें तो सब कुछ आता ही है। इसी तरह गोल्ड मेडल प्राप्त, सर्वाधिक अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला छात्र भी यह मान लेता है कि उसे तो सब आता ही है। यूनिवर्सिटी के मास कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट से 3 या 6 महीने के ट्रेनिंग पीरियड पर अखबारों में काम समझने के लिए आने वाले छात्रों को कुछ दिनों तक बड़ा अटपटा लगता है क्योंकि जिस यूनिवर्सिटी से वो डिप्लोमा/डिग्री कोर्स कर रहे होते हैं वहा उन्हें किताबी ज्ञान तो भरपूर मिलता है लेकिन अखबारों में होने वाले रूटीन वर्क या फील्ड वर्किंग की जानकारी नहीं होती। ट्रेनिंग पीरियड के दौरान ये छात्र सब कुछ जाने-समझने के साथ ही अपने नोलेज को अपडेट भी करते चलते हैं।
घर की सुन्दरता बढ़ाने वाले फिशपॉट की मछलियों को तेज बहाव वाली नदियों में छोड़ दिया जाए तो वह खुद को सुरक्षित रखते हुए तैर लेती हैं लेकिन कुएं के मेंढ़क को किसी बड़ी नदी में काफी संघर्ष इसलिए करना पड़ता है कि इससे पहले तक उसे कुआं ही समुद्र नजर आता था। जब हम यह याद रखते हैं कि जीवन में हर पल किसी ना किसी से कुछ ना कुछ सीखा जा सकता है तो हमें विपरीत परिस्तिथियों में भी सब कुछ आसान लगता है। पर यदि ऐसा ना करें तो यह भी समझ नहीं आता कि कल तक जो हमारे साथ थे वे सब आगे बढ़ते गए और हम वहीं के वहीं कदमताल क्यों कर रहे हैं।

Thursday, 7 April 2011

फालतू नहीं है मदद करने वाले

आप के मोहल्ले, कालोनी में भी कुछ ऐसे लोग होंगे ही जो किसी भी घर में मुसीबत की जानकारी मिलने पर तन, मन, धन से मदद में जुट जाते हैं। तब इन्हें अपने परिवार के सुख-दुख की भी याद नहीं रहती। अंजान चेहरों पर मुस्कान के लिए मदद को दौड़ पड़ने वाले ऐसे निस्वार्थ लोगों को हम में से ही कई लोग फालतू कहने में भी नहीं हिचकते। जरा सोचिए कितने लोगों का ऐसा व्यवहार है, ऐसे लोगों के कारण ही समाज में मानवीय पर्यावरण बचा हुआ है जबकि हम सब उसे भी प्रदूषित करने में कोई कसर नही छोड़ रहे। जिनका काम हमें फालतू लगता है जरा एक दिन उनके जितना वक्त दूसरों के लिए देकर तो देखें।
बस स्टैंड के समीप सड़क के बीचोंबीच खड़ी गाड़ी का फ्रंट गेट खुला हुआ था, उस गेट का सहारा लेकर गर्दन झुकाए खडे अधेड़ उम्र के सरदारजी बुरी तरह हांफ रहे थे। उन्हें पकड़े हुए युवती अपने दूसरे हाथ से उनकी पीठ सहला रही थी। रात का वक्त होने के बावजूद गाड़ी के आसपास भीड़ एकत्र थी। समीप पहुंच कर देखा और वहां खडे लोगों की चर्चा सुनी तो समझ आया कि उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ा है। वह युवती उनकी पुत्री है तथा ये लोग चंडीगढ़ के रहने वाले हैं। इन दोनों को एक सिख युवक ढांढ़स बंधा रहा था कि यादा परेशानी हो तो आइजीएमसी हास्पिटल ले चलते हैं। इसी युवक ने यहां-वहां भागदौड़ कर अस्थमा मरीज के लिए बेहद जरूरी इनहेलर (पम्प) एवं दवाइयों का इंतजाम किया था। वह सलाह भी दे रहा था कि ये दवाई तो हमेशा आप को साथ रखना चाहिए।
दूसरी तरफ इन लोगों का कहना था हमें याद नही रहा कि पहाड़ी इलाके में जा रहे हैं। ये लोग होटल से चेकआउट करके निकले और उनकी तबीयत बिगड़ गई। समीप ही दवाई की दुकान थी, वहां से लाइफ सेविंग ड्रग खरीदना चाही लेकिन दुकानदार ने यह कहकर दवाइयां देने से इंकार कर दिया कि आडिट चल रहा है। कुछ देर बाद उन सरदारजी की हालत बातचीत करने जैसी हुई, उन्होंने समय पर दवाइयां उपलब्ध करा कर जीवन बचाने वाले उस युवक का आभार माना। बेटी ने मां को आंखों ही आंखो में दवाई के पैसे देने के लिए इशारा किया। मां ने पर्स से नोट निकाल कर देना चाहे उस युवक ने विनम्रता से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि दवाई से बढ़कर नोट नही है। आसपास खडे लोगों ने उस सिख युवक के इस कार्य की सराहना करते हुए उसे देवदूत कहा तो उसका कहना था ये सब तो मुझ से रब ने कराया है जी, मैं कौन हूं। यदि यह युवक समय रहते दवाइयां उपलब्ध नहीं कराता तो उनकी हालत और गम्भीर हो सकती थी।
आज जब यादातर लोग सड़क पर तड़पते किसी व्यक्ति को देखने के बाद भी मदद को आगे नहीं आते ऐसे में इस युवक का काम सराहना योग्य तो था ही। हमारे आसपास भी ऐसे कई लोग हैं जो हर वक्त लोगों की मदद को तत्पर रहते हैं, पर हम कहां उनके इस काम की कद्र कर पाते हैं। पहली नजर में उनका काम ढोंग लगता है तो कई लोग इसे कम अक्ल के नमूने कहने की जल्दबाजी करते हैं। और जब हमारा ही मन हमें ऐसे कार्य करने वालों की सराहना के लिए बाध्य करता है तो हम रब के ऐसे बन्दों का हौसला बढ़ाने में भी कंजूसी करते हैं। एक प्रसंग और याद आ रहा है। एक मित्र का बेटा खेलते-खेलते सड़क पर आ गया और उसी वक्त वहां से निकल रही एक कार से टकरा जाने के कारण उसके पैर मे फ्रेक्चर हो गया। मित्र के लिए बहुत आसान था कि वे पुलिस में रिपोर्ट लिखाते, फिर लंबे समय तक केस चलता। मित्र के मन में केस दर्ज कराने की बात इसलिए नहीं आई क्योंकि उस कार मालिक ने बच्चे को अस्पताल में दाखिल कराने, कई रात अस्पताल में बिताने के साथ ही उपचार का सारा खर्च भी वहन किया। वरना तो उसके लिए यह यादा आसान था कि एक मुश्त राशि देकर राम-राम कर लेता या घायल बालक को सड़क पर तड़पता छोड़कर फरार हो जाता। पुलिस केस दर्ज होता भी तो अंतत: दोनों पक्षों में विवाद आपसी समझौते से ही निपटता। सारा काम धन्धा छोड़कर उस कार मालिक का दिन-रात अस्पताल में हाजिर रहना गुनाह से यादा मानवीयता की मिसाल पेश करने जैसा ही है। क्या ऐसे सारे लोगों के काम को अनदेखा किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण ही हमारे आसपास मानवीयता का थोड़ा बहुत स्वच्छ पर्यावरण बचा हुआ है। क्यों हम शंका-कुशंका की नजर से देख कर इसे भी प्रदूषित करने में लगे हैं? हम खुद तो किसी के लिए खुदाई खिदमतगार बनना नहीं चाहते लेकिन जो लोग बिना किसी अपेक्षा के अंजान लोगों के दर्द को खुशी में बदलने के लिए तन-मन-धन से लगे रहते है क्या हम उनकी सराहना भी नहीं कर सकते। अपनों के दर्द में तो अपने ही खडे रहते है लेकिन चर्चा उस अंजान की यादा होती है जो मुश्किल काम भी आसान करता जाता है और आभार, धन्यवाद की चाहत भी नहीं रखता। कई बार हम ऐसे काम में उलझे होते हैं कि हम अपने ही पारिवारिक सदस्य की मदद नहीं कर पाते, उन लोगों का हमें कई बार उलाहना भी सुनना पड़ता है लेकिन हर वक्त मदद को तत्पर रहने वाले ये सारे वो लोग होते हैं जिनका अपना घर-परिवार भी होता है लेकिन अंजान लोगों के चेहरों पर मुस्कान की खातिर अपने परिवार की प्राथमिकताओं को भी भुला देते हैं, अच्छा होगा कि हम ऐसे लोगों को कम से कम फालतू मानना तो छोड़ ही दें।